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शिबिरके समीप पहु
सप्तविंशतितम पर्व ततोऽवरोभनवधूमुखच्छायाविलअधिनि । मध्यन्दिनात सम्राट् सम्प्राप शिबिरान्तकम् ॥१२२॥ छत्ररत्नकूतच्यायो दिव्यं रथमधिष्ठितः । न तवातपसम्बाधां विदामास' विशाम्पतिः ॥१२३॥ वर्षायोभिरथास प्रारधसु खसडकथः । प्रयातमपि नावानं विवेद भरताधिपः ॥१२४॥ नोद्घातः कोऽप्यभूवद्धग रथाङ्गपरिवर्तनः । रथवेगेऽपि नास्याभूत् क्लेशो' दिव्यानुभावतः ॥१२५॥ रथवेगानिलोवस्त व्यासतं तद्ध्वजांशुकम् । पश्चादागामिसैन्यानामिव मार्गमसूत्रयत् ॥१२६॥ रोड़तगतिक्षोभाद् उद्भताड़गपरिश्रमाः। कथं कथमपि प्रापन् रथिनोऽन्ये रयं प्रभोः ॥१२७॥ तमध्वशेषमध्वम्यः" तुरङगैरत्यवाहयन् । सादिनः प्रभुणा साधं शिविरं प्रविविक्षवः ॥१२८॥ दूरावृष्यकुटीभेदान् उत्थितान् प्रभुरेक्षत। सेनानिवेशमभितः सौषशोभापहासिनः ॥१२॥ रौप्यदरेष विन्यस्तान् विस्तृतान् पदमण्डपान् । सोऽपश्यज्जनतातापहारिणः सुजनानिव ॥१३०॥ किमेतानि स्थलाब्जानि हंसयूथान्यमूनि वा । इत्याशकघ्र स्थूलाग्राणि दूराद्दवृशिरे जनः ॥१३॥ सामन्तानां निवेशेषु कायमानानि नकधा। निवेशितानि विन्यासः निबध्यौ८ प्रभुरग्रतः ॥१३२॥
परितः कायमानानि वीक्ष्य कण्टकिनीतीः। निष्कण्टके निजे राज्ये मेने तानेव कण्टकान् ॥१३३॥ चीतसे जिन्हें मार्गका परिश्रम भी मालूम नहीं हुआ है ऐसे सैनिक लोग सेनापतिके द्वारा पहले से ही तैयार किये हुए शिबिर अर्थात् ठहरनेके स्थानपर जा पहुंचे ॥१२१॥ तदनन्तर जब मध्याह्नका सूर्य अन्तःपुरकी स्त्रियोंके मुखकी कान्तिको मलिन कर रहा था तब सम्राट भरत
रके समीप पहंचे ॥१२२॥ जिनपर छत्ररत्नके द्वारा छाया की जा रही है और जो देवनिर्मित सुन्दर रथपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतको उस दोपहरके समय भी गर्मीका कुछ भी दुःख मालूम नहीं हुआ था ॥१२३॥ जिन्होंने समीपमें चलनेवाले वृद्ध जनोंके साथ साथ अनेक प्रकारकी कथाएं प्रारम्भ की हैं ऐसे भरतेश्वरको बीते हुए मार्गका भी पता नहीं चला था ॥१२४॥ दिव्य सामर्थ्य होनेके कारण रथके पहियोंकी चालसे उनके शरीरमें कुछ भी उद्घात (दचका) नहीं लगा था और न रथका तीव्र वेग होनेपर भी उनके शरीरमें कुछ क्लेश हुआ था ॥१२५।। रथके वेगसे उत्पन्न हुए वायुसे ऊपरकी ओर फहराता हुआ उनकी ध्वजा का लम्बा वस्त्र ऐसा जान पड़ता था मानो पीछे आनेवाली सेनाके लिये मार्ग ही सूचित कर रहा हो ॥१२६॥ रथकी उद्धत गतिके क्षोभसे जिनके अंग अंगमें पीड़ा उत्पन्न हो रही है ऐसे रथ पर सवार हुए अन्य राजा लोग बड़ी कठिनाईसे महाराज भरतके रथके समीप पहुंच सके थे ॥१२७॥ जो घुड़सवार लोग महाराज भरतके साथ ही शिबिरमें प्रवेश करना चाहते थे उन्होंने बचे हुए मार्गको अपने उन्हीं चलते हुए श्रेष्ठ घोड़ोंसे बड़ी शीघुताके साथ तय किया था ॥१२८॥ जो राजभवनोंकी शोभाकी ओर भी हँस रहे हैं ऐसे शिबिरके चारों ओर खड़े किये हुए रावटी तम्बू आदि डेराओंको महाराज भरतने दूरसे ही देखा ॥१२९।। उन्होंने चांदीके खंभोंपर खड़े किये हुए बहुत बड़े बड़े कपड़ेके उन मण्डपोंको भी देखा था जो कि सज्जन पुरुषों के समान लोगोंका संताप दूर कर रहे थे ॥१३०॥ क्या ये स्थलकमल हैं अथवा हंसोंके समूह हैं इस प्रकार आशंका कर लोग दूरसे ही उन तम्बुओंके अग्रभागोंको देख रहे थे ॥१३१॥ सामन्त लोगोंकी ठहरनेकी जगहपर अनेक प्रकारकी रचना कर जो तम्बू वगैरह बनाये गये थे उन्हें भी महाराज भरतने सामनेसे देखा था ॥१३२॥ तम्बुओंके चारों ओर जो कटीली
१ दिनाधिपे ट० । मध्याह्नसूर्ये । २ विविदे। ३ कुलवृद्धादिभिः । ४ मुख ल० । ५ अतिदूरं गतम् । ६ पीड़ा। ७ रथचक्रभूमणः । ८ क्लमः ट० । श्रमः । ६ उद्धतम् । १० अदर्शयत् । ११ अध्वनि साधुभिः । १२ अतिक्रम्य प्रापत् । १३ प्रवेष्टुमिच्छवः । १४ सेनारचनायाः समन्तात् । १५ पटकुटयाग्राणि । 'दूष्यं स्थूलं पटकुटीगुणलयनिश्रेणिका तुल्या' इति बैजयन्ती । १६ कुटीभेदाः । १७ नानाप्रकारा। १८ ददर्श ।
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