Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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द्वितीय अध्याय ।
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धन और धान्य का सञ्चय करने के समय, विद्या सीखने के समय, भोजन करने के समय और देन लेन करने के समय मनुष्य को लजा अवश्य त्याग देनी चाहिये ॥ १०५॥
सन्तोपामृत तृप्त को, होत जु शान्ती सुक्ख ॥
सो धनलोभी को कहां, इत उत धावत दुक्ख ॥ १०६ ॥ सन्तोपरूप अमृत से तृप्त हुए पुरुष को जो शान्ति और सुख होता है वह धन के लोभी को कहां से हो सकता है ? किन्तु धन के लोभी को तो लोभवश इधर उधर दौड़ने से दुःख ही होता है ॥ १०६ ॥
तीन थान सन्तोप कर, धन भोजन अरु दार ।
तीन संतोप न कीजिये, दान पठन तपचार ।। १०७॥ मनुष्य को तीन स्थानों में सन्तोष रखना चाहिये—अपनी स्त्री में, भोजन में और धन में, किन्तु तीन स्थानों में सन्तोप नहीं रखना चाहिये-सुपात्रों को दान देने में, विद्याध्ययन करने में और तप करने में ॥ १० ॥
पग न लगावे अग्नि के, गुरु ब्राह्मण अरु गाय ॥
और कुमारी बाल शिशु, विद्वजन चित लाय ॥ १०८ ॥ आ र, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुमारी कन्या, छोटा बालक और विद्यावान् , इन के जान ठूझकर पैर नहीं लगाना चाहिये ॥ १०८ ॥
हाथी हाथ हजार तज, घोड़ा से शत भाग ॥
शूगि पशुन दश हाथ तज, दुजेन ग्रामहि त्याग॥ १०९॥ हाथी से हजार हाथ, घोड़े से सौ हाथ, बैल और गाय आदि सींग वाले जानवरों से दश हाथ दूर रहना चाहिये तथा दुष्ट पुरुष जहां रहता हो उस ग्राम को ही छोड़ देना चाहिये ॥ १०९॥
लोमिहिं धन से वश करै, अभिमानिहिं कर जोर ॥
मूर्ख चित्त अनुवृत्ति करि, पण्डित सत के जोर ॥ ११० ॥ लोभी को धन से, अभिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उस से कथन के
१-त्योंकि इन कामों में लजा का त्याग न करने से हानि होती है तथा पीछे पछताना पड़ता।।२-क्योंकि दान अध्ययन और तप में सन्तोष रखने से अर्थात् थोड़े ही के द्वारा अपने को कृतार्थ समझ लेने से मनुष्य आगामी में अपनी उन्नति नहीं कर सकता है ॥ ३-इन में से करें तो साधुवृत्ति वाले होने से तथा कई उपकारी होने से पूज्य हैं अन्तः इन के निकृष्ट अंग पैर के लगाने का निषेध किया गया है ॥ ४-इस बात को अवश्य याद रखना चाहिये अर्थात् मार्ग में हाथी, घोड़ा, बैल और ऊंट आदि जानवर खड़े हों तो उन से दूर होकर निकलना चाहिये क्योंकि यदि इस में प्रमाद (गफलत) किया जावेगा तो कभी न कभी अवश्य दुःख उठाना पड़ेगा।
__ ५ जै० सं०
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