Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय
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अर्थात् जिसके होने पर नियम से जिसकी उत्पत्ति है, वह उसका कार्य और
इतर कारण कहलाता है।
अष्टसहस्री में विद्यानन्द ने कारण को इस प्रकार परिभाषित किया है
'नियतपूर्वक्षणवर्तित्वं कारणलक्षणम्'
अर्थात् कार्य के नियत पूर्ववर्ती क्षण में रहने वाला कारण होता है।
प्रमाणनयतत्त्वालोक में वादिदेवसूरि ने चार प्रकार के अभावों का विवेचन करते हुए प्रागभाव की निवृत्ति को कार्य की उत्पत्ति के रूप में स्वीकार किया है"यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभाव इति । यथा - मृत्पिण्डनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्ड इति । ११
प्रागभाव की निवृत्ति होने पर कार्य होता है, उदाहरणार्थ मिट्टी के पिण्ड की निवृत्ति होने पर ही घट की उत्पत्ति देखी जाती है। मिट्टी कारण है और घट कार्य है। अष्टसहस्री में कहा है- 'नियतोत्तरक्षणवर्त्तित्वं कार्यलक्षणम् 'नियत रूप से होने वाला कारण के उत्तरक्षणवर्ती कार्य होना कहलाता है।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कार्यकारणभाव निरूपण इस प्रकार हुआ है
पुव्व-परिणाम- जुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं ।
उत्तर - परिणाम जुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा । । १२
प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय परिणमन होता रहता है। उसमें से पूर्वक्षणवर्ती द्रव्य कारण होता है और उत्तरक्षणवर्ती द्रव्य कार्य होता है। जैसे- लकड़ी जलने पर कोयला हो जाती है और कोयला जलकर राख हो जाता है। यहाँ कोयले रूपी कार्य में लकड़ी कारण है और राख रूपी कार्य में कोयला कारण है। आप्तमीमांसा में समन्तभद्र (छठी शती) ने कहा है कि कारण का विनाश ही कार्य का उत्पाद है। अतः पहली पर्याय के नष्ट होने पर दूसरी पर्याय के उत्पन्न होने में पूर्व पर्याय उत्तर पर्याय का कारण है और उत्तर पर्याय कार्य है। इस तरह प्रत्येक द्रव्य में कार्य-कारण भाव
विद्यमानता है।
'कारण' कार्य का अन्वयव्यतिरेकी होता है। कारण के होने पर कार्य का होना अन्वय तथा कारण के न होने पर कार्य का न होना व्यतिरेक कहलाता है। अतः कार्य कारण का अनुगामी होता है। जैसे- मिट्टी की उपस्थिति में घट का होना और
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