Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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८४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण न्याय दर्शन में काल
न्यायदर्शन के सूत्रकार गौतमऋषि ने कणाद की भांति काल तत्त्व को सिद्ध करने के लिए स्वतन्त्र सूत्रों की रचना नहीं की, किन्तु वे काल को स्वीकार करके चलते हैं। उदाहरणार्थ मन की सिद्धि करते हुए वे कहते हैं- 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्'। यहाँ युगपद् शब्द काल का बोध कराता है। एक साथ या एक काल में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति न होना मन का साधक हेतु होता है। अक्षपाद गौतम ने प्रमेय पदार्थों में भले ही काल को पृथक रूप से प्रतिपादित न किया हो, किन्तु वे काल को स्वीकार करते हैं। प्रसंगवश एक स्थल पर दिशा, देश, काल और आकाश की कारणता के संबंध में काल शब्द का प्रयोग भी किया है। काल की न्याय दर्शन में वही अवधारणा है जो वैशेषिक दर्शन में है। इसलिए वैशेषिक दर्शन में जो काल के स्वरूप का वर्णन किया गया है वही न्याय दर्शन का भी समझना चाहिए। सांख्यदर्शन में काल एवं उसकी कारणता
सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्त्व हैं। विस्तार से कहें तो प्रकृति के प्रधान (मूल प्रकृति), बुद्धि, अहंकार, पंचतन्मात्राएँ, पंचज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, मन और पंच महाभूत ये चौबीस तत्त्व होते हैं। २५ वाँ तत्त्व पुरुष माना जाता है। इन पच्चीस तत्त्वों में कहीं भी काल का उल्लेख नहीं आया है तथापि सांख्य प्रवचन के द्वितीय अध्याय में काल का उल्लेख प्राप्त होता है'दिक्कालावाकाशादिभ्यः ६९ अर्थात् दिशा और काल आकाश प्रकृति के स्वरूप ही हैं। ये प्रकृति के गुण विशेष है। दिक् और काल को नित्य स्वीकार किया गया है। आकाश के विभु होने के कारण दिक् और काल भी विभु हैं। 'आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः' ऐसी श्रुति भी है। जो खण्ड दिक्, काल आदि के प्राप्त होते हैं, वे उपाधि संयोग आदि से आकाश से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सांख्य दर्शन में प्रकारान्तर से काल को अंगीकार किया गया है तथा उसके विभु और खण्ड दोनों स्वरूप स्वीकार किए गए हैं।
सांख्य दर्शन में तुष्टि के रूप में काल का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों के अन्तर्गत 'काल' को तृतीय तुष्टि माना है। सांख्यकारिका की तत्त्वप्रभा टीका में कालतुष्टि के संबंध में कहा गया है कि साक्षात् प्रव्रज्या भी मोक्षदायिनी नहीं होती है, किन्तु काल की अपेक्षा रखकर ही विवेक ख्याति सिद्ध होती है। युक्तिदीपिकाकार ने उपादान का सामर्थ्य होने पर भी काल की अपेक्षा को अंगीकार किया है। काल के अनुरूप ही प्राणियों में स्वाभाविक
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