Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३५४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
गीता कर्मफल संविभाग में विश्वास करती है। इसकी मान्यता है कि श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में तथा कुलधर्म के विनष्ट होने से पितरों का पतन हो जाता है। संतानादि द्वारा किये गये शुभाशुभ कृत्यों का प्रभाव उसके पितरों पर पड़ता है। इस प्रकार गीता पुण्य एवं अपुण्य कर्मों के फल संविभाग को स्वीकार करते हए यह कहती है कि इनका फल अनिवार्य रूप से इनके कर्ता को ही प्राप्त नहीं होता, बल्कि उसके परिवार वालों को भी भोगना पड़ सकता है।६८१
गीता में मनुष्य के स्वतन्त्र रूप से कर्म करने के अधिकार को तो स्वीकार किया गया है, किन्तु फल को ईश्वराधीन माना गया है।६८ व्यक्ति के कर्म करने के अधिकार की स्वतन्त्रता एकान्त रूप से स्वच्छन्दता नहीं है, बल्कि उसमें समत्व बुद्धि भी जुड़ी होनी आवश्यक है। इसलिए स्वतंत्र रूप से कर्म करने के अधिकार की व्याख्या में गीता समत्व बुद्धि से कर्म करने पर विशेष जोर देती है और कर्मों के अनुसार ही कर्मफल को स्वीकार करती है।६९ - गीता में अनेक स्थलों पर पुनर्जन्म का स्पष्ट वर्णन मिलता है। यद्यपि गीता के प्रारम्भ में आत्मा को जन्म-मरण से परे अजर-अमर एवं नित्य बताया गया है, फिर भी पुनर्जन्म एवं देहान्तर प्राप्ति को एक अतिसाधारण घटना के रूप में चित्रित किया गया है। गीता के दूसरे अध्याय में यह वर्णन आया है कि जिस प्रकार जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्धा अवस्था होती रहती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति या देहान्तर प्राप्ति भी है। तत्त्ववेत्ता धीर पुरुष इस विषय में चिन्ता नहीं करते। पुनर्जन्म को एक रूपक से समझाते हुए गीताकार कहते हैं
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।"
अर्थात् जीवात्मा द्वारा एक शरीर छोड़कर दूसरे को ग्रहण करना ठीक वैसे है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है।
मोक्ष को गीता में निर्वाणपद, अव्ययपद, परमपद, परमगति और परमधाम आदि नामों की संज्ञा दी गई है। मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में आना नहीं होता है वही परमधाम है। परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे (कृष्ण) को प्राप्त हो कर दुःखों के घर इस अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मलोकपर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्तियुक्त है, लेकिन जो भी मुझे (कृष्ण या ईश्वर को) प्राप्त कर लेता है, उसका पुन: जन्म नहीं होता।७२
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