Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५६५ श्रद्धा मात्र से काम नहीं चलता है। वहाँ श्रद्धा के साथ जीव को अप्रमत्त बनकर तपसंयम में पुरुषार्थ करना होता है। पुरुषार्थ : संयम, तप, निर्जरा आदि का आधार
जैन धर्म श्रमण संस्कृति का धर्म है। जिसमें संवर एवं तप रूप श्रम या पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। समस्त साधना पुरुषकार या पुरुषार्थ पर टिकी हुई है। संयम में पराक्रम का प्रसंग हो या परीषह-जय की परिस्थिति, सर्वत्र पुरुषकार या पुरुषार्थ ही जैन दर्शन में प्रमुख आलम्बन बनकर आता है। पुरुषार्थ के बल पर ही महाव्रत एवं अणुव्रत की साधना सफल होती है। सम्यक् चारित्र अथवा चारित्र धर्म की समस्त साधना पुरुषार्थ के महत्त्व का प्रतिपादन करती है। पाँच समिति एवं तीन गुप्ति का पालन भी पुरुषार्थ के महत्त्व का प्रतिष्ठापन करता है। पुरुषकार तो एक प्रकार से जीव का लक्षण है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं। साधना के पुरुषार्थ के बल पर कर्मों की तीव्र एवं तीव्रतर निर्जरा संभव है। एक अवस्था से दूसरी अवस्था में असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा भी हो सकती है। पुरुषार्थ पूर्वक यह निर्जरा ही जैन दर्शन की अनुपम विशेषता है। यही नहीं कुछ कमों का फल भोग किये बिना भी उनकी स्थिति और अनुभाग को कम किया जा सकता है। इसमें भी पुरुषार्थ ही कारण है। यह पुरुषार्थ आत्मिक स्तर पर मन-वचन-काया के माध्यम से होता है। पुरुषार्थ की प्रमुखता के निदर्शन
जैन धर्म दर्शन में पुरुषार्थ के महत्त्व पर विस्तार से षष्ठ अध्याय में विचार किया जा चुका है इसलिए यहाँ संक्षेप में संकेत मात्र में बात कही गई है जो इस तथ्य की सूचक है कि जैन धर्म दर्शन में पुरुषार्थ की प्रमुखता है। पुरुषार्थ करके मोक्ष में जाने वाली कुछ महान् आत्माओं का उल्लेख किया जा रहा है१. तीर्थकर महावीर- तीर्थकर महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक तपस्या करके
केवलज्ञान की प्राप्ति की। कानों में कीलें ठोके जाने पर भी उन्होंने समत्व भाव का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। लाट देश में भ्रमण करते समय उन पर पत्थर फेंके जाने पर, उनके पीछे कुत्ते छोड़ दिये जाने पर तथा गालियाँ देकर तिरस्कार करने पर भी उन्होंने अपना आत्मिक पुरुषार्थ नहीं छोड़ा। तप-संयम की साधना में पूर्ण सामर्थ्य के साथ डटे रहे। जो परीषह एवं उपसर्ग उपस्थित हुए उनसे तनिक भी विचलित नहीं हुए। अहिंसा, समता, अपरिग्रह एवं निष्कषायता के पुरुषार्थ में वे निमग्न रहे। गोशालक के
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