Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार ६२५ जैन दर्शन में 'कर्म सिद्धान्त' की प्रधानता होते हुए भी एकान्त कर्मवाद का द्वादशारनयचक्र, शास्त्रवार्ता समुच्चय और सन्मति तर्क की तत्त्वबोधविधायिनी टीका में जैनाचार्यों ने उपस्थापन एवं निरसन किया है। आचारांग सूत्र एवं उसकी शीलांक टीका में भी एकान्त कर्मवाद का उपस्थापन हुआ है, यथा
जगत की विचित्रता का कारण कर्म है। कर्मवाद के द्वारा कालवादी, यदृच्छावादी, नियतिवादी, ईश्वरवादी और आत्मवादी निरस्त हो जाते हैं। पुरुषकार या पुरुषार्थ के द्वारा भी जब कार्य की सिद्धि नहीं होती है तब पूर्वकृत कर्म ही कारण के रूप में सिद्ध होता है। पुरुषकार के होते हुए भी कार्य की असिद्धि देखी जाती है, इसलिए सिद्धि-असिद्धि के पीछे कोई न
कोई दूसरा कारण है जो कर्म है। ३. कार्य की भिन्नता से कारण की भिन्नता का बोध होता है और इस
भिन्नता का प्रवर्तक कारण कर्म ही है। ४. कर्म से आविष्ट पुरुष उसी प्रकार अस्वतन्त्र या परवश है जिस प्रकार
वेताल से आविष्ट शव। ५. पुरुषार्थवादी शंका करते हैं कि कर्म को सहायक कारण के रूप में
पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है। कर्मवादी इसका समाधान देते हुए कहते हैं कि जो पुरुषकार होता है वह भी धर्म या अधर्म स्वरूप फल प्रदान करने के कारण कर्म ही है। भोक्ता को भोग्य पदार्थ स्वकृत कर्म के अनुसार ही मिलते हैं अत: भोग्य पदार्थ की प्राप्ति से पुरुष के कर्मों की सिद्धि स्वत: हो जाती है। जीवों का पूर्वार्जित कर्म ही जगत् का उत्पादक होता है। जगद्धेतुत्वं कर्मण्येव, इतरेषां पराभिमतहेतूनां व्यभिचारित्वादिति भावः३३ अर्थात् जगत् की कारणता जीव के कर्मों में ही है। भोक्ता के अनुकूल कर्म के अभाव में मूंग का पकना भी नहीं देखा जाता। कभी-कभी दृष्ट कारण का अभाव होने पर भी आकस्मिक धन लाभ देखा जाता है। उसका कारण अदृष्ट कर्म ही है। काल विपाक होने पर कोई भोग्य सामग्री की उपलब्धि स्वीकार करते हैं किन्तु वस्तुतः वह काल भी कर्म का ही अंगभूत है।
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