Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 696
________________ उपसंहार ६३५ जैन दर्शन में पुरुषकार या पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। पुरुष के साथ पुरुषकार की कारणता स्वयं सिद्ध है। भारतीय संस्कृति में मान्य पुरुषार्थ चतुष्टय में से यहाँ धर्म पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व दिया गया है। पुरुषार्थ की सिद्धि जैन वाङ्मय में पदे-पदे प्राप्त है। जैन धर्म में मान्य धर्म-पुरुषार्थ या पराक्रम को पुष्ट करने वाले कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं १. जैन दर्शन में तप-संयम में पराक्रम की प्रेरणा की गई है। २. मोक्ष की सिद्धि हेतु पुरुषार्थ को जागरित करने पर बल दिया गया है। ३. संयम, तप, निर्जरा आदि में पुरुषार्थ को साधन स्वीकार किया गया है। ४. तीर्थकर ऋषभदेव से महावीर तक के २४ तीर्थकरों का जीवन, गौतम आदि ग्यारह गणधरों का जीवन पुरुषार्थ की प्रेरणा देता है। ५. अन्तगड सूत्र में ९९ आत्माओं द्वारा कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त करने का निरूपण भी जैन दर्शन में पुरुषार्थ की मान्यता को पुष्ट करता है। ६. शालिभद्र, धन्ना अणगार, स्कन्धक ऋषि, धर्मरुचि अणगार आदि के जीवन प्रसंग भी आत्म पुरुषार्थ के समर्थक हैं। 'पंच समवाय' सिद्धान्त में कालादि पाँच कारणों का समन्वय करने में सिद्धसेन सूरि, हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, मल्लधारी राजशेखर सूरि, उपाध्याय यशोविजय, उपाध्याय विनयविजय आदि उद्भट दार्शनिकों ने सफल प्रयास किये हैं। पंच कारण समवाय की सिद्धि में श्वेताम्बराचार्यों ने जितना स्पष्ट योगदान किया है उतना प्राचीन दिगम्बराचार्यों का योगदान ज्ञात नहीं होता। अमृतचन्द्राचार्य ने ४७ नयों का विवेचन करते हुए कालनय, स्वभावनय, नियतिनय, दैवनय और पुरुषकारनय का प्रतिपादन किया है, किन्तु पंच कारण समवाय के नाम से कोई चर्चा नहीं की। जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में 'कालादिलब्धिवशात्' शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु पाँच कारणों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। १९वीं शती से पंच समवाय सिद्धान्त के प्रतिष्ठापन में श्री तिलोकऋषि जी महाराज, शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज, श्री कानजी स्वामी आदि के प्रयास उल्लेखनीय हैं। पंच समवाय मुक्तिप्राप्ति में भी सहायक है तथा व्यावहारिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भी इनकी कारणता सिद्ध होती है। काल आदि पाँच कारणों में परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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