Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार ६२३
बन्ध के चार प्रकार हैं- प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध। कर्म के स्वभाव को प्रकृति, उसकी फल प्रदान करने की अवधि को स्थिति, फलदान शक्ति को अनुभाग और बद्ध कर्म - पुद्गल परिमाण को प्रदेश बंध के रूप में मान्य किया गया है।
कर्म - सिद्धान्त के संबंध में विशेषावश्यक भाष्य एवं विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर इस अध्याय में जो चर्चा की गई है, उसमें से कतिपय बिन्दु निष्कर्षतः इस प्रकार है
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आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त। इन दोनों का संयोग अनादि है, किन्तु मोक्ष प्राप्ति के समय इनका वियोग संभव है।
मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा के साथ संबंध संभव है । जिस प्रकार घट मूर्त होते हुए भी उसका संयोग संबंध अमूर्त आकाश से होता है उसी प्रकार मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संयोग संभव है। मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा के साथ संबंध होने के प्रश्न पर कुछ दार्शनिकों का समाधान है कि कर्म से युक्त आत्मा कथंचित् मूर्त है । कर्मबंधन से वियुक्त होने पर उसका अमूर्त स्वरूप प्रकट हो जाता है।
कर्म का कर्ता और भोक्ता जीव है। जीव के सुख-दुःख स्वयंकृत हैं, परकृत नहीं ।
कर्म के फल का संविभाग दूसरा नहीं कर सकता अर्थात् एक जीव के द्वारा किये गये कर्म का फल उसे ही भोगना होता है। दूसरा उसे नहीं बाँट
सकता।
कर्मबंध के सामान्य हेतु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के होने पर भी प्रत्येक कर्म के बंध के अपने विशिष्ट हेतु भी हैं, जिनका निरूपण तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में स्पष्टतः हुआ है।
शुभ कर्म
को
पुण्य
पुण्य और अशुभ कर्म पाप कहे जाते हैं। दूसरे शब्दों में विशुद्धि और संक्लेश को पाप कहा गया है।
सुख-दुःख की अनुभूति, देहान्तर प्राप्ति चेतन की क्रिया फलवती होने से कर्मों की सिद्धि होती है। सुख एवं शुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पुण्य कर्म का तथा दुःख अशुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पाप कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।
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