Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार ६२७ पुरुषकार, स्वभावादि अनेक कारणों को मानने में और इस कर्म को मानने में नाममात्र का भेद रह जाएगा। आत्मा कर्म का आलम्बन है, उस आलम्बन के बिना कर्म अपना कार्य नहीं कर सकता। चेतन से अनिधिष्ठित कर्म वास्यादि की भाँति है, जिसका कोई अधिष्ठायक होना चाहिए। अधिष्ठायक को स्वीकार करते
ही एकान्त कर्मवाद खण्डित हो जाता है।
निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त एक प्रमुख सिद्धान्त के रूप में विवेचित होने पर भी जैन दार्शनिक उसकी एकान्त कारणता से असहमत हैं। वे पूर्वकृत कर्मों के साथ काल, स्वभाव, नियति और पुरुषार्थ को भी कथंचित् महत्त्व देते हैं।
षष्ठ अध्याय में पुरुष के जगत्स्रष्टा-स्वरूप का निरसन एवं पुरुषकार/ पुरुषार्थ की कारणता का कथञ्चित् स्वीकार है। जैनदर्शन में मान्य 'पंच समवाय' सिद्धान्त में पुरुषकार या पुरुषार्थ का अप्रतिम स्थान है। आधुनिक मान्यतानुसार पंच समवाय में काल, स्वभाव, नियति एवं कर्म के साथ पुरुषार्थ का समावेश किया जाता है। यह उपयुक्त ही है, क्योंकि जैनदर्शन श्रमणसंस्कृति का प्रतिनिधिदर्शन है जिसमें 'श्रम' का महत्त्व निर्विवाद है। यह श्रम दुःखमुक्ति के लिए करणीय साधना को इंगित करता है। इस श्रम में संयम एवं तप की साधना का समावेश है। आगम वाङ्मय में एतादृक् पुरुषार्थ के पोषक अनेक उद्धरण सम्प्राप्त हैं।
आत्मकृत कर्म के अनुसार फलप्राप्ति को स्वीकार करने वाले आत्मस्वातन्त्र्यवादी जैनदर्शन में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार एवं पराक्रम आदि के रूप में पुरुषार्थ की महत्ता स्थापित हो यह स्वाभाविक है, तथापि इस अध्याय में पुरुषवाद एवं पुरुषार्थवाद का पृथक्प प्रस्तुत किया गया है। सिद्धसेनसूरि की गाथा (सन्मतितर्क ३.५३) में 'पुरिसे' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस गाथा में प्रयुक्त 'पुरिसे' शब्द का टीकाकार शीलांक ने 'पुरुष' अर्थ करके पुरुषवाद की चर्चा की है। पुरुषवाद के अनुसार जगत् का स्रष्टा परम पुरुष है जो सर्वव्यापक है, नित्य है, सर्वज्ञ है और एक है। इस पुरुषवाद का जैन दार्शनिक निरसन करते हैं।
हरिभद्रसूरि ने 'पुरिसे' के स्थान पर 'पुरिसकिरियाओ' (पुरुषक्रिया) शब्द का प्रयोग किया है, जो धीरे-धीरे पुरुषकार एवं पुरुषार्थ के रूप में प्रयुक्त होने लगा। जैन दर्शन के फलक पर यह पुरुषक्रिया, पुरुषकार या पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग अधिक समीचीन है।
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