Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६१६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण राजतरंगिणि में 'शक्तो न कोऽपि भवितव्यविलंघनायाम् ११ वाक्य नियति की महत्ता का प्रकाशक है।
साहित्यशास्त्री मम्मट विरचित काव्यप्रकाश में 'नियतिकृतनियमरहितां' कारिका में 'नियति' शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने असाधारण धर्म या नियामक तत्त्व के रूप में, कर्म की अपर पर्याय के रूप में, अदृष्ट के रूप में तथा दैव के रूप में नियति शब्द की व्याख्या की है।
बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में गोशालक ने बुद्ध के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने मत को स्पष्ट किया है- “प्राणियों के दुःख का कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु
और प्रत्यय के ही प्राणी दुःखी होते हैं। प्राणियों की विशुद्धि का भी कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्धि को प्राप्त होते हैं।२२
योगवासिष्ठ में नियति के सिद्धान्त को सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्वीकार किया गया है। योगवासिष्ठ में प्रतिपादित है कि नियति की अटलता और निश्चितता को कोई भी खण्डित करने में समर्थ नहीं है। यहाँ तक कि सर्वज्ञ और बहुज्ञ प्रभु भी नियति को अन्यथा नहीं कर सकते। योगवासिष्ठकार ने पुरुषार्थ को भी नियति सापेक्ष प्रतिपादित किया है। नियति पुरुषार्थ के रूप से ही जगत की नियामिका है- 'पौरुषेण रूपेण नियतिर्हि नियामिका२३ काश्मीर शैव दर्शन में ३६ तत्त्वों के अन्तर्गत नियति की भी गणना की गई है।
जैनदर्शन के विभिन्न ग्रन्थों में नियतिवाद का निरूपण हुआ है, जिससे नियति की विभिन्न विशेषताएँ प्रकाश में आई है१. सुख-दुःख की प्राप्ति अपने या दूसरे के निमित्त से नहीं अपितु नियति के
कारण से होती है। संसार में त्रस व स्थावर प्राणी है, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर को प्राप्त करते हैं। ये नियति के कारण ही बाल्य,
युवा और वृद्धावस्था को प्राप्त होते हैं- सूत्रकृतांग, पौण्डरिक अध्ययन २. नियति एक पृथक् तत्त्व है, जिसके वश में सभी भाव हैं और वे नियत रूप
से ही उत्पन्न होते हैं। जो, जब, जिससे होना होता है वह तब उससे ही नियत रूप से प्राप्त होता है। ऐसा नहीं मानने पर कार्य-कारण व्यवस्था और
प्रतिनियत व्यवस्था संभव नहीं है। -नन्दीसूत्र की अवचूरि ३. नियतिवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि पुरुषकार को कार्य की उत्पत्ति में
कारण मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसके बिना नियति से ही समस्त प्रयोजनों की सिद्धि हो जाती है। -अभयदेवसूरि, प्रश्नव्याकरण वृत्ति
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