Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार ६१९ जैन दार्शनिकों ने नियतिवाद के निरसन में अनेक तर्क दिए हैं। कुछ प्रमुख तर्क इस प्रकार हैं१. आगम का मन्तव्य है कि पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ भी व्यक्ति के सुख
दुःख में हेतु होते हैं। २. यदि नियतिवाद को स्वीकार किया जाए तो परलोक के लिए की गई जीव
की क्रियाएँ व्यर्थ हो जायेंगी। किन्तु पुरुषार्थ को व्यर्थ नहीं माना जा सकता। ३. नियति स्वतः नियन्त्रित है या किसी अन्य से नियन्त्रित है। ४. उपासकदशांग सूत्र में उत्थान, कर्म, बल,वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि के
महत्त्व का स्थापन करते हुए भगवान महावीर ने गोशालक के नियतिवाद
का निरसन किया है। ५. पुरुषकार का अपलाप करने वाला नियतिवाद मृषा एवं प्रमाणातीत है।
-प्रश्नव्याकरण की ज्ञानविमलसूरिकृत टीका ६. नियति अचेतन है और अचेतन कर्ता कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। वह किसी के आश्रित ही हो सकता है, अनाश्रित नहीं।
- प्रश्नव्याकरण की ज्ञानविमलसूरिकृत टीका ७. नियति के सर्वात्मक होने से सदैव सब वस्तुएँ सब आकार वाली हो जायेंगी तथा उनमें पूर्व-पश्चात् और युगपत् का व्यवहार संभव नहीं होगा।
___- द्वादशारनयचक्र ८. नियति को स्वीकार करने पर हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए
आचार का उपदेश निरर्थक हो जाएगा। - द्वादशारनयचक्र
हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में तथा उनके टीकाकार यशोविजय ने स्याद्वादकल्पलता टीका में नियति के निरसन में निम्नांकित तर्क दिए हैं, जिनका सार इस प्रकार हैं
१. नियति की एकरूपता असंभव है। २. नियति को स्वीकार करने पर उसकी सर्वहेतुता का लोप उपस्थित होता है।
सर्वहेतुता से आशय है सभी वस्तुओं का एक हेतु नियति। ३. अन्य भेदक के बिना नियति से वैचित्र्य की कल्पना अनुपयुक्त है।
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