Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६१८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
२. बुद्धि के धर्म आदि आठ अंग नियति से नियमित हैं। ३. नियतिवाद के अनुसार जीव का स्वरूप चैतन्य है तथा क्रोध, मोह, लोभ
आदि ज्ञान लक्षण रूप स्वभाव जिसका है वह चैतन्य है। नियतिवाद में पाँच इन्द्रियाँ और मन मान्य हैं। मन अहं के द्वारा नियत है तथा प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् रूप से रहता है। नरक, स्वर्ग आदि के दुःख-सुख नियत हैं। ज्ञान भी नियत है तथा उच्च कुलीनों का स्वभाव भी नियत है। नियतिवाद के अनुसार आकाश, काल, सुख-दुःख, जीव-अजीव आदि
तत्त्व मान्य हैं। ८. नियतिवादियों को प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण मान्य हैं। ९. शरीर आदि का कर्ता आत्मा नहीं है। १०. जगद्वैचित्र्य की सिद्धि नियतिवाद के बिना नहीं हो सकती। ११. नियति आदि से नियमित उपादान ही सत्कार्य में व्यापार करता है। यह
नियति ही कार्य की निमित्त होती है।
हरिभद्रसूरि(८वीं शती) तथा उनके टीकाकार यशोविजय(१७वीं शती) ने नियतिवाद के स्वरूप में कहा है१. नियतिजन्यता प्रत्येक वस्तु का साधारण धर्म है। सभी पदार्थ नियति से
उत्पन्न होते हैं।-शास्त्रवार्ता समुच्चय नियति प्रमाण से सिद्ध है, क्योंकि जगत् में नियति के स्वरूप के अनुसार ही घटादि कार्यों की उत्पत्ति देखी जाती है। नियति रूप विशिष्ट कार्य की
उत्पत्ति ही नियति की सत्ता में प्रमाण है। ३. नियति के बिना मूंगों का पकना भी संभव नहीं है। ४. कार्य को यदि नियतिजन्य नहीं मानेंगे तो कार्य में नियतरूपता का कोई
नियामक नहीं बनेगा। नियामकता के अभाव में उत्पन्न होने वाले कार्यों में सर्वात्मकता की आपत्ति आ जाएगी।
उपाध्याय यशोविजय ने नयोपदेश में कहा है कि- नियतिवादी का मन्तव्य है कि मुक्ति तो होती है, किन्तु उसका कोई उपाय नहीं है। वह अकस्मात् ही होती है।
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