Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१.
उपसंहार ६१७ ४. पदार्थों में आवश्यक रूप से जो जिस प्रकार होना होता है उसकी
प्रयोजककी नियति होती है। -आचारांग सूत्र, शीलांक टीका ५. जिस जीव को जिस समय, जहाँ जिस प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव करना होता है। वह संगति कहलाती है। यह संगति ही नियति है
- सूत्रकृतांग एवं उसकी शीलांक टीका द्वादशारनयचक्र पाँचवीं शती की महत्त्वपूर्ण रचना है। जिसमें मल्लवादी क्षमाश्रमण एवं उसके टीकाकार सिंहसूरि ने नियतिवाद के स्वरूप पर निम्नानुसार प्रकाश डाला है
नियतिवाद में पुरुष के कर्तृत्व को स्वीकार नहीं किया जाता। उसके
अनुसार पुरुष न स्वतंत्र है और न ज्ञाता। २. नियति ही एक मात्र कारण है जिसको स्वीकार करने पर पदार्थों के सदृश
या विसदृश कार्यों के घटित होने में कोई व्याघात नहीं आता है। नियति उत्पद्यमान पदार्थों से भिन्न नहीं है, अपितु भेद बुद्धि से उत्पन्न होने वाले पदार्थों में भी नियति की अभिन्नता रहती है। क्रिया और क्रियाफल रूप सभी नियतियों में अभेद होता है। एक ही नियति से द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से विभिन्न स्वरूप प्रकट होते हैं। अपेक्षा से वह द्रव्य-नियति, क्षेत्र-नियति, कालनियति और भाव-नियति से जानी जा सकती है। नियति एक होकर भी भिन्न-भिन्न कार्यों को करने में समर्थ होती है तथा
अनेक रूप होने पर कार्य और कारण से वह अभिन्न होती है। ६. यदि कहीं उत्पत्ति आदि में अनियम देखा जाता है तब भी वहाँ नियति को
ही कारण मानना चाहिए। ७. नियति को स्वीकार करने पर कोई अभिमान शेष नहीं रह जाता।
सिद्धसेन विरचित नियति द्वात्रिंशिका एवं विजयलावण्यसूरिरचित टीका और मुनि भुवनचन्द्र रचित गुजराती व्याख्या के आधार पर नियतिवाद की निम्नांकित मान्यताएँ अभिव्यक्त हुई हैं
१. सर्वसत्त्वों के स्वभाव की नियतता है।
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