Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५६८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कारणवाद प्रचलित थे। इन अनेक कारणवादों के समूह में से सिद्धसेन दिवाकर ने ये पाँच कारण ही चुने, अन्य नहीं। इसके पीछे जैनागमों की भूमिका रही होगी। जैनागमों में ये पाँच कारण ही यत्र-तत्र बिखरे रूप में मिलते हैं। जिनका सिद्धसेन ने अनेकान्तदृक् से सन्मतितर्क के तृतीय काण्ड में केवल एक गाथा के रूप में सम्मिलित करते हुए कहा
कालो सहाव नियई पुवकयं पुरिसे कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव, समासओ होंति सम्मत्तं।।
अर्थात् काल, स्वभाव नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष ये पाँचों कारण मिलकर सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं तथा एकान्त रूप से मिथ्या हैं।
काल, स्वभाव आदि की ऐकान्तिक कारणता मिथ्यात्व है, किन्तु कथंचित् कारणता सम्यक्त्व है। इनकी कथंचित् कारणता जैन दर्शन में स्वीकार्य है। आचार्य सिद्धसेन का यह मन्तव्य श्लोकाबद्ध रूप में यहाँ उद्धृत है
क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते वचः, स्वभावनियताः प्रजाः समयतन्त्रवृत्ताः क्वचित्। स्वयंकृतभुजः क्वचित् परकृतोपभोगाः पुन,
नवा विशदवाद! दोषमलिनोऽस्यहो विस्मयः।।
कहीं नियतिवाद, कहीं स्वभाववाद, कहीं कालवाद, कहीं पुरुषार्थवाद और कहीं पूर्वकृत कर्मों को कार्य की उत्पत्ति में कारण माना गया है, किन्तु जैन दर्शन में कथंचित् इन सबका महत्त्व है। यही स्याद्वाद या विशदवाद का प्रतिपादन है।
२. हरिभद सूरि- हरिभद्र सूरि ने अपनी एक नहीं अनेक कृतियों में कालादि पाँचों कारणों की सामूहिकता को अनेक सदंभों में निरूपित किया है। उन्होंने शास्त्रवार्ता समुच्चय, बीजविंशिका, उपदेश पद, धर्मबिन्दु नामक ग्रन्थों में इसे उल्लिखित कर सिद्धसेन के मत का समर्थन किया है। शास्त्रवार्ता समुच्चय में उन्होंने अन्य मतों की चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष की ऐकान्तिक कारणता का प्रबल तकों से निरसन कर अन्य हेतुओं के साथ कालादि को कार्योत्पादक बताया है। जैसे कि कहा है
अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम्। गर्भादेः कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः।।
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