Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 657
________________ ५९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ५. अन्तगड सूत्र में ९९ आत्माओं द्वारा कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त करने का निरूपण भी जैन दर्शन में पुरुषार्थ की मान्यता को पुष्ट करता है। शालिभद्र, धन्ना अणगार, स्कन्धक ऋषि, धर्मरुचि अणगार आदि के जीवन प्रसंग भी आत्म पुरुषार्थ के समर्थक हैं। पंच समवाय सिद्धान्त में कालादि पाँच कारणों का समन्वय करने में सिद्धसेन सूरि, हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, मल्लधारी राजशेखरसूरि, उपाध्याय यशोविजय, उपाध्याय विनयविजय आदि उद्भट दार्शनिकों ने सफल प्रयास किये हैं। शीलांकाचार्य ने कहा है सब्वेवि य कालाई इह समुदायेण साहगा भणिया। जुज्जति य एमेव य सम्म सव्वस्स कज्जस्स।।५ पंच कारण समवाय की सिद्धि में श्वेताम्बराचार्यों ने जितना स्पष्ट योगदान किया है उतना प्राचीन दिगम्बराचार्यों का योगदान ज्ञात नहीं होता। अमृतचन्द्राचार्य ने ४७ नयों का विवेचन करते हुए कालनय, स्वभावनय, नियतिनय, दैवनय और पुरुषकारनय का प्रतिपादन किया है किन्तु पंच कारण समवाय के नाम से कोई चर्चा नहीं की। जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में 'कालादिलब्धिवशात् शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु पाँच कारणों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। १९वीं शती से पंच समवाय सिद्धान्त के प्रतिष्ठापन में श्री तिलोकऋषि जी महाराज, शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज, श्री कानजी स्वामी आदि के प्रयास उल्लेखनीय हैं। पंच समवाय मुक्तिप्राप्ति में भी सहायक है तथा व्यावहारिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भी इनकी कारणता सिद्ध होती है। काल आदि पाँच कारणों में परस्पर गौण-प्रधान भाव संभव है। कभी काल प्रधान हो सकता है, कभी स्वभाव, कभी नियति, कभी पूर्वकृत कर्म तो कभी पुरुषार्थ। यह भी आवश्यक नहीं कि सदैव एक साथ पाँचों कारण उपस्थित हों, पाँचों कारण तो जीव में घटित होने वाले कार्यों में ही होते हैं, अजीव पदार्थों में सम्पन्न होने वाले कार्यों में न तो पूर्वकृत कर्म कारण होता है और न ही उनका अपना पुरुषार्थ। उपचार से जीव के पूर्वकृत कर्मों एवं पुरुषार्थ को कथंचित् कारण माना जा सकता है। पुद्गल के प्रयोग-परिणमन में तो जीव का पुरुषार्थ कारण बनता भी है। ये पाँच कारण परस्पर एक-दूसरे के प्रतिबंधक नही होते है। इनमें परस्पर समन्वय से कार्य की सिद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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