Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार
भारतीय दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त की चर्चा में जैन दर्शन का भी अप्रतिम स्थान है। जैन दार्शनिक सांख्य के सत्कार्यवाद, वेदान्त के सत्कारणवाद, न्यायदर्शन के असत् कार्यवाद और शून्यवादी बौद्ध दर्शन के असत्कारणवाद का निरसन करते हुए सदसत्कारणवाद तथा सदसत्कार्यवाद की स्थापना करते हैं। इनके अनुसार कारण सत् भी है और असत् भी। कार्य की उत्पत्ति होने से पूर्व कारण सत् होता है तथा कार्य उत्पन्न हो जाने पर उपादान कारण का मूल स्वरूप न रहने से वह असत् भी होता है। कारण की भाँति जैन दर्शन में कार्य को भी सदसत् माना गया है। इस प्रकार जैन दर्शन का कारणकार्य सिद्धान्त सदसत्कार्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है। एकान्त सत् अथवा एकान्त असत् पदार्थ न तो स्वयं उत्पन्न होते हैं और न किसी को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार नित्यानित्यात्मक सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थों में ही कारण-कार्य भाव घटित होता है।
जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्य को क्रमभावी, भिन्नाभिन्न और सदृशासदृश स्वीकार किया है। वे संख्या, संज्ञा, लक्षण आदि के भेद से कारण-कार्य में कथंचित् भिन्नता का प्रतिपादन करते हैं तथा मृदादि की एकता, सत्त्व, प्रमेयत्व आदि के आधार पर उनमें अभिन्नता स्वीकार करते हैं।
अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्यवाद पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है, यथा
१. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव की कारणता २. षट्कारकों की कारणता ३. षड्द्रव्यों की कारणता ४. निमित्त और उपादान की कारणता ५. पंच समवाय की कारणता
द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की कारणता पर विचार जैन दार्शनिकों का अपना मौलिक योगदान है। वे इन चार कारणों को आधार बनाकर समस्त कारण-कार्य सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं। अजीव द्रव्यों में घटित होने वाले कार्यों में इन चारों कारणों का व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। जीव में घटित होने वाले कार्यों के प्रति भव की कारणता को भी अंगीकार किया गया है। नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव भव विभिन्न कार्यों के विशिष्ट कारण होते हैं।
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