Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 673
________________ ६१२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण क्षणों में अत्यन्त सदृश होता है, जिससे उनका वैसादृश्य तिरोहित रहता है। अतः सदृश अंकुर क्षणात्मक कार्य से सदृश बीज क्षणात्मक कार्य का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं होती। आचारांग सूत्र की टीका में शीलांकाचार्य ने स्वभाव को परिभाषित करते हुए कहा है- 'वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः। ५१ अर्थात् वस्तु का स्वतः तथा परिणत रूप होना स्वभाव है। सभी भूत स्वभाव से ही प्रवृत्त और निवृत्त होते हैं। सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में शीलांकाचार्य ने तज्जीवतच्छरीरवादी के मत में स्वभाव से ही जगत् की विचित्रता को उत्पन्न बताया है। द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद का प्राचीन स्वरूप अभिव्यक्त हुआ है। वहाँ कहा गया है- 'युगपदयुगपद् घटरूपादीनां ब्रीह्यकुरादीनां च तथा तथा भवनादेव तु स्वभावोऽभ्युपगतः। १२ ९. द्वादशारनयचक्र में कहा गया है कि स्वभाव के अतिरिक्त द्रव्यों की अपेक्षा रखने पर स्वभाववादियों को आपत्ति नहीं है, किन्तु वे उसे भी स्वभाव के अन्तर्गत ही सम्मिलित करते हैं। एक ही स्वभाव शक्तिभेद से कारक भेद को प्राप्त होता है। वही कर्ता, कर्म, करण आदि स्वरूपों को प्राप्त होता है। जैनाचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि उनके टीकाकार यशोविजय, तत्त्वबोधविधायिनी के टीकाकार अभयदेवसूरि और अज्ञात कृतिकार के द्वारा स्वभाववाद का प्रबल निरसन किया गया है। मल्लवादी क्षमाश्रमण ने स्वभाववाद का निरसन करते हुए प्रश्न उठाया है कि यह स्वभाव व्यापक है या प्रत्येक वस्त में परिसमाप्त होता है? यदि व्यापक है तो पररूप का अभाव सिद्ध होने से स्वविशेषण निरर्थक है। यदि प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है तो वह घटत्व पटत्व आदि से भिन्न सिद्ध नहीं हो सकेगा। विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है कि स्वभाव कोई वस्तु विशेष नहीं है। उनके अनुसार निष्कारणता को भी स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणि में जगत् की विचित्रता एवं सुख-दुःख के अनुभव में एकमात्र स्वभाव को हेतु मानने वाले स्वभाववादियों पर प्रश्नों की बौछार कर दी है। वे कहते हैं- स्वभाव भाव रूप है या अभाव रूप? यदि वह भाव रूप है तो एक रूप है या अनेक रूप? यदि भाव रूप में एक रूप है तो वह नित्य है या अनित्य? यदि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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