Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 667
________________ ६०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान एवं अधिकरण कारकों की कारणता को प्रतिपादित कर अनेकान्त दृष्टि का परिचय दिया है। जैन दार्शनिकों ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल द्रव्य की कारणता पर भी विचार किया है। इन षड्द्रव्यों के अपने उपग्रह या उपकार हैं। वे ही उनके कार्य हैं जो अन्य द्रव्यों के कार्यों में भी सहायक बनते हैं। ___ उपादान और निमित्त कारणों के रूप में भी जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्य सिद्धान्त की व्याख्या की है। आगम वाङ्मय में उपादान और निमित्त शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु उत्तरवर्ती दार्शनिकों ने इन्हें जैनदर्शन में यथोचित स्थान दिया है। कारण-कार्य की व्याख्या में जैन दार्शनिकों का 'पंच-समवाय' सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह उनकी अनेकान्त दृष्टि का परिणाम है। पंच समवाय में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ इन पाँच कारणों का समन्वय स्वीकार किया गया है। आगम वाङ्मय में पंच समवाय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। सिद्धसेन सूरि ने पाँचवीं शती ईस्वी में 'सन्मतितर्क प्रकरण' में उपर्युक्त पाँच कारणों के समुदाय को सम्यक्त्व एवं एक-एक कारण को मिथ्यात्व प्रतिपादित किया है, यथा कालो सहाव णियई, पुवकयं पुरिसे कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होन्ति सम्मत्त।।' ___ पाँच कारणों की गणना करते हुए भी सिद्धसेनसूरि ने 'पंचसमवाय' शब्द का प्रयोग नहीं किया। 'पंच समवाय' शब्द उत्तरवर्ती आचार्यों की देन है। १९वीं शती के तिलोकऋषि जी के काव्य में इसका प्रयोग दृष्टिगत होता है। संभव है उसके पूर्व भी यह प्रसिद्ध रहा हो। 'पंचानां कारणानां समवाय: पंचसमवाय:' के रूप में यह पाँच कालादि पाँच कारणों का समुदाय है। सिद्धसेनसूरि ने समवाय के लिए 'समासओ' शब्द का प्रयोग किया है, जो आगे कलाप, समुदाय, समुदित आदि शब्दों की यात्रा तय करता हुआ 'समवाय' के रूप में परिवर्तित हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। सम्प्रति 'पंच समवाय' शब्द अत्यन्त प्रसिद्ध है। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष/पुरुषार्थ में एक-एक की कारणता को ही पर्याप्त मानने वाले दार्शनिक मतों का कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पूर्वकृत कर्मवाद एवं पुरुषवाद/पुरुषकारवाद शीर्षकों से विभिन्न अध्यायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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