Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
भारतीय दर्शन की विभिन्न परम्पराओं में काल के स्वरूप एवं उसकी कारणता पर विचार हुआ है। वैशेषिक दर्शन में काल को द्रव्य के रूप में स्थापित किया गया है। चिर, क्षिप्र, परत्व- अपरत्व आदि में उसे विशेष कारण अंगीकार किया गया है। सांख्य दर्शन में चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों में काल को तृतीय तुष्टि के रूप में अंगीकार करते हुए कहा गया है कि काल की अपेक्षा रखकर ही विवेक ख्याति सिद्ध होती है। वेदान्त दर्शन में नैमित्तिक प्रलय में काल को निमित्त बताया गया है। व्याकरण दर्शन में इसे अमूर्त क्रिया के परिच्छेद (मापन) का हेतु स्वीकार किया गया है। योगदर्शन में यह क्षण और क्रम के रूप में विवेचित है। वहाँ क्षण को वास्तविक एवं क्रम का आधार बताया गया है।
जैन वाङ्मय में भी कालवाद की पर्याप्त चर्चा हुई है। जैन दार्शनिकों ने कालवाद के स्वरूप का निरूपण करने के साथ उसका निरसन भी किया है। जैनागमों में काल को एक द्रव्य तो प्रतिपादित किया गया है किन्तु कालवाद का पृथक् रूप से स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । सूत्रकृतांग में कथित "ईसरेण कडे लोए पहाणाति तहावरे 14 पंक्ति के 'पहाणाति' शब्द से व्याख्याकारों ने काल का भी ग्रहण किया है। सूत्रकृतांग में ही निरूपित क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद की व्याख्या करते हुए क्रियावाद और अक्रियावाद के अन्तर्गत 'कालवाद' के क्रमशः ३६ एवं १४ भेद निरूपित किये गये है। शीलांकाचार्य ने आचारांग सूत्र की टीका में कालवाद का स्वरूप निरूपित करते हुए कहा है कि काल ही विश्व की स्थिति - उत्पत्ति और प्रलय में कारण है।
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नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने कहा है- 'कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्वं जगत् मन्यन्ते । कालवाद के अनुसार काल ही सब कार्यों का कारण है, उसी से व्यवस्था बनती है। यदि कोई पुरुष मूँग रांधता है तो वे भी बिना काल के नहीं रांधे जाते हैं। अन्यथा हांडी, ईंधन आदि सामग्री के संयोग से प्रथम समय में ही मूंग रंध जाते। इसलिए जो कुछ होता है वह कालकृत ही है।
मल्लवादी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य और अभयदेवसूरि ने अपनी कृतियों में कालवाद का उपस्थापन कर उसका युक्तियुक्त निरसन किया है। जैन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि काल ही एकमात्र कारण नहीं है, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ की भी कारणता मानना अपेक्षित है। जैनाचार्यों द्वारा उपस्थापित पूर्वपक्ष में कालवाद सिद्धान्त विषयक नवीन सूचनाएँ भी अभिव्यक्त हुई है
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