Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 658
________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५९७ अन्त में यह कहा जा सकता है कि पंच समवाय का सिद्धान्त जैन दर्शन की अनेकान्तवादी या नयवादी दृष्टि का परिणाम है तथा यह जैनागमों की मूल मान्यता से अविरोध रखता है। संदर्भ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. सन्मतितर्क प्रकरण, ३.४७ सन्मतितर्क प्रकरण, ३ . ५३ तिलोक काव्य कल्पतरू, पंचवादी स्वरूप-विषयक काव्य, पृष्ठ १०५ गोम्मटसार - जीव काण्ड, गाथा ५६८ १०. - तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २२ बृहद् द्रव्य संग्रह, प्रथमाधिकार, गाथा २१ पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति २५/५३/३ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, खण्ड ६, पृष्ठ १७० "वर्तना हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां तत्सत्तायाश्च साधारण्याः सूर्यगम्यादीनां च स्वकार्यविशेषानुमितस्वभावानां बहिरंगकारणापेक्षा कार्यत्वात्तंडुलपाकवत् यत्तावद्बहिरंगं कारणं स कालः ।" - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, षष्ठ भाग, पृष्ठ १६५ आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतुः कालोऽस्तीतिः, तन्न किं कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवत् । यथा - भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु तदेव पचति, तेजसो हि स व्यापारः तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति । कालस्य हि स व्यापारः । -राजवार्तिक ५ / २२/८ ११. सर्वार्थसिद्धि २.३.१० महापुराण ६२/३१४-३१५ उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग द्वितीय पृष्ठ ६१५ १२. १३. अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य । कालाई लद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि || Jain Education International - मोक्षपाहुड २४ उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग द्वितीय, पृष्ठ ६१५ १४. प्रवचनसार गाथा १४४ की तात्पर्य वृत्ति में १५. धवला पुस्तक ९/४, १, ४४/१२०/१० उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग द्वितीय . पृष्ठ ६१५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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