Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५६७ सुकुमार सेठ ने अपनी अतुल धन-सम्पदा एवं ३२ पत्नियों का त्याग करके आत्म पुरुषार्थ के बल पर साधना के शिखर को प्राप्त किया। धन्ना सेठ ने एक पल में ही अपनी धर्मपत्नी एवं परिवार का त्याग कर संयम पथ अपनाया। स्कन्धक ऋषि की खाल उतारी गई तब भी अविचल समभाव का परिचय दिया। धर्मरुचि अणगार को नागश्री ने कड़वे तुम्बे का आहार दिया। आचार्य की आज्ञा पाकर उसे जंगल में परठने के लिए गए, वहाँ एक बूंद बाहर डालने पर जब चीटियाँ आकर उसमें मरने लगी तो धर्मरुचि अणगार का मन स्वयं उस कड़वे तुम्बे को पीने का हो गया। प्राणि-रक्षा को महत्त्व देकर स्वयं ने उस आहार का भक्षण कर उच्च गति प्राप्त की।
इस प्रकार जैन धर्म दर्शन में पुरुषार्थ ही आचरण का प्रमुख पक्ष है। जीव के वश में यह पुरुषार्थ ही है जिसके बल पर वह मुक्ति की ओर चरण बढा सकता है। अन्य सब कारणों के होते हुए भी यदि समुचित पुरुषार्थ न हो तो मोक्ष की ओर कदम नहीं बढ सकते। काल, स्वभाव, नियति एवं पूर्वकृत कर्मों की कारणता को भी जैन दर्शन ने स्वीकार किया है, किन्तु पुरुषार्थ की महिमा सबसे बढकर है। पंच समवाय में पांच कारणों का समन्वय प्राचीन श्वेताम्बर जैनाचार्यों का योगदान
जैन दार्शनिकों ने जैन धर्म दर्शन में पुरुषार्थ का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भी काल, स्वभाव, नियति एवं पूर्वकृत कमों की कारणता को यथोचित रूप में स्वीकार किया है। सिद्धसेन (पाँचवीं शती), हरिभद्र सूरि (७००-७७०ई.शती), शीलांकाचार्य (नौवी-दसवीं शती), अभयदेव सूरि (दसवीं शती), मल्लधारी राजशेखर सूरि (बारहवीं- तेरहवीं शती), उपाध्याय यशोविजय (सत्रहवीं शती), उपाध्याय विनयविजय (सत्रहवीं शती) आदि उद्भट दार्शनिकों ने इस दिशा में सफल प्रयास किये हैं। यहाँ इन दार्शनिकों द्वारा की गई मीमांसा के आधार पर उनके तकों को उपस्थित किया जा रहा है
१. सिद्धसेन सूरि- सिद्धसेन सूरि ने सर्वप्रथम काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष इन पाँचों के समवाय की कारणता को सम्यक्त्व स्वीकार किया है। अनेकान्त को विभिन्न कोणों से स्थापित करने वाले कई जैन दार्शनिक हुए, किन्तु मात्र सिद्धसेन ने ही जैनदर्शन में 'कारणता' की दृष्टि से पाँचों कारणों के समवाय की स्थापना की है। उस युग में मात्र ये पाँच कारण ही विकसित नहीं थे, अपितु इनके अतिरिक्त ईश्वरवाद, यदृच्छावाद, ब्रह्मवाद, भूतवाद आदि अनेक
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