Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५८९
प्रधानता हो सकती है किन्तु वहाँ नियति ही काम करती है। निश्चित नियम या क्रम से ऋतु परिवर्तन, पेड़-पौधों का विकास, मनुष्य का विकास आदि कार्य हुआ करते हैं। गृहिणियाँ घर में दूध जमाती है तब वे निश्चित समय पर दूध की कवोष्णता, बाहरी वातावरण आदि को देखकर जामण डालती है। यदि समय पर जामण न डाला जाए तो दूध से दही सही नहीं जमता । रसोई के प्रत्येक कार्य में गृहिणियों को वस्तु के स्वभाव के अनुसार काल को ध्यान में रखकर पुरुषार्थ करना होता है । प्रधानता से भले ही पुरुषार्थ को कारण कहा जाए किन्तु काल वस्तु के स्वभाव आदि की कारणता का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता।
जैन दार्शनिकों ने अपनी अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण पाँच कारणों के समवाय को स्वीकार तो किया है किन्तु उनके गौण प्रधान भाव या उनसे कार्य परिणति के उदाहरणों के रूप में उनकी समरूपता को व्याख्यायित करने का प्रयास नहीं किया। जब व्यक्ति के द्वारा पुरुषार्थ करने पर भी सफलता नहीं मिलती है तब वे काल आदि अन्य कारणों को भी प्रस्तुत कर देते हैं ।
हरिभद्रसूरि कहते हैं कि दैव एवं पुरुषार्थ दोनों से मिलकर कार्य सम्पन्न होता है। किन्तु जब फल की प्राप्ति पूर्वोपार्जित कर्म की उदग्रता एवं पुरुषार्थ की अल्पता से हो जाती है तब उसे लोक में दैव से सम्पन्न कार्य कहा जाता है तथा इसके विपरीत पुरुषार्थ की अधिकता एवं दैव की अनुदग्रता से कार्य सम्पन्न होता है तो उस कार्य को पुरुषकार से सम्पन्न माना जाता है
जमुदग्गं थेवेणं कम्मं परिणमइ इह पयासेण ।
तं दइवं विवरीयं तु पुरिसगारो मुणेयव्वो ।।"
दुःखमुक्ति की साधना में पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय एवं नवीन कर्मों के निरोध में जीव के पुरुषार्थ की प्रधानता अंगीकार की जा सकती है। यदि जीव कुछ न कर सके तो तीर्थकरों के उपदेश का भी औचित्य सिद्ध नहीं होता । संयम, तप और त्याग से युक्त जैन परम्परा में आत्म-पुरुषार्थ का महत्त्व निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है।
पंच कारणों की न्यूनाधिकता
जैन दार्शनिकों ने काल, स्वभाव आदि पाँच कारणों को अवश्य स्वीकार किया है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि में पाँचों कारण अपेक्षित हों। ये पाँचों कारण तो जीव में घटित होने वाले कार्यों की दृष्टि से कहे गए हैं। अजीव पदार्थों में घटित होने वाले कार्यों में पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का होना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि अजीव पदार्थों का अपना कोई पूर्वकृत कर्म
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