Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५९२ जैनदर्शन में कारणग-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
दार्शनिकों ने पंच कारण - समवाय में समन्वय करते हुए काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष / पुरुषार्थ कारण के रूप में अंगीकृत किया है। जैन दार्शनिकों ने जिस प्रकार एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यता का निरसन करते हुए वस्तु को नित्यानित्यात्मक प्रतिपादित किया है उसी प्रकार काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म तथा पुरुष / पुरुषार्थ की पृथक्-पृथक् एकान्त कारणता को जैन दार्शनिकों ने मिथ्यात्व और इनके सामासिक या समन्वयात्मक रूप को सम्यक् प्रतिपादित किया है। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि जैन दार्शनिक इन सभी कारणों को जैन दर्शन में स्वीकार करते हैं। इन सभी कारणों को स्वीकार करने की पुष्टि इसी अध्याय में सोदाहरण की जा चुकी है। जैन दर्शन में कथंचित् काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुष / पुरुषार्थ की कारणता स्वीकृत है। इसलिए इन सब कारणों के समन्वित रूप को सम्यक्त्व कहने में कोई हानि नहीं है। किन्तु इससे यह पुष्ट नहीं होता है कि इनमें से किसी कारण के न रहने पर कार्य की सिद्धि नहीं होगी।
कार्य की सिद्धि इन पाँच कारणों में कदाचित् किसी के न्यून होने पर भी हो सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पंच समवाय सिद्धान्त की मान्यता के पीछे जैन दार्शनिकों की अनेकान्तवाद की दृष्टि ही प्रमुख कारण रही है।
निष्कर्ष
जैनदर्शन की अनेकान्तवादी नय दृष्टि का ही परिणाम है कि इसमें पंच कारण समवाय सिद्धान्त को स्थान मिला। इसके पूर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव की कारणता जैन वाङ्मय में प्रतिपादित रही है। आगे चलकर निमित्त और उपादान की दृष्टि से भी कारण कार्य का विचार हुआ। जैन दर्शन के कारण कार्य सिद्धान्त को सदसत्कार्यवाद नाम से जाना गया है।
सिद्धसेन दिवाकर ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष / पुरुषकार में से एक-एक की कारणता को मिथ्यात्व तथा सबके सामासिक या समन्वित स्वरूप को सम्यक्त्व कहा। उनके अनन्तर हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, यशोवजिय, मल्लधारी राजशेखरसूरि, उपाध्याय विनयविजय आदि ने पंच समवाय के प्रतिष्ठापन में अपना योगदान दिया। उनके अनन्तर तिलोकऋषि जी, शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज, कानजी स्वामी आदि ने भी पंच समवाय को प्रतिष्ठित करने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया।
इसमें संदेह नहीं कि जैन दर्शन में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की कारणता अंगीकृत है। इनमें एक-एक को प्रधान बनाकर भी कारणता का
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