Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५७३ बताया है वह दोष नहीं है, क्योंकि स्वभाव आत्मा से भिन्न नहीं है और आत्मा कर्ता है यह हमने स्वीकार किया है। अत: आत्मा का कर्तृत्व स्वभावकृत ही है तथा कर्म भी कर्ता है क्योंकि वह जीवप्रदेश के साथ परस्पर मिलकर रहता हुआ कथंचित् जीव से अभिन्न है। उसी कर्म के वश आत्मा नारक, तिर्यच, मनुष्य और अमरगति में भ्रमण करता हुआ सुख-दुःख को भोगता है।८
शीलांक कहते हैं कि ईश्वर भी कर्ता है, आत्मा ही अलग-अलग स्थानों पर उत्पत्ति होने के कारण समस्त जगत में व्याप्त होने से ईश्वर है। उस आत्मा का सुखदुःख की उत्पत्ति में कर्तृत्व सभी वादियों ने स्वीकार किया है। ईश्वर में जो मूर्त-अमूर्त आदि का दूषण दिया गया है, वह हमारे द्वारा स्वीकृत आत्मा रूप ईश्वर में लागू नहीं होता। शीलांकाचार्य का यह कथन नय विशेष की अपेक्षा से ग्राह्य हो सकता है अन्यथा जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता ईश्वर का स्थान नहीं है।५९
आचार्य शीलांक कहते हैं कि कर्म भी कर्ता होता है। वह जीव प्रदेशों के साथ अन्योन्य रूप से अनुप्रविष्ट और व्यवस्थित है। कथंचित् वह आत्मा से अभिन्न भी है। आत्मा कथंचित् उसी कर्म के कारण नारक, तिर्यक, मनुष्य और देवभव में भ्रमण करता हुआ सुख-दुःखादि का अनुभव करता है। इस प्रकार नियति एवं अनियति दोनों का कर्तृत्व युक्ति से उपपन्न होने पर मात्र नियति का ही कर्तृत्व स्वीकार करने वाले नियतिवादी निर्बुद्धिक सिद्ध होते हैं।६० ।
इस प्रकार आचार्य शीलांक ने जैन दर्शन में एकान्त नियतिवाद का निरसन करते हुए कथंचित् काल, स्वभाव, आत्मा, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषकार की भी कार्य की कारणता में सापेक्ष दृष्टि से स्थान दिया है एवं सबकी कारणता स्वीकार करने पर ही उसे सम्यक्त्व की श्रेणि में लिया है। ४. अभयदेव सूरि- सिद्धसेनसूरि के टीकाकार अभयदेवसूरि सन्मतितर्क पर टीका करते हुए कहते हैं कि प्रमाण से काल आदि का एकान्त संभव नहीं है। इनका पृथक्पृथक् वाद मिथ्यावाद है और ये ही अन्योन्य की अपेक्षा रखकर नित्यादि एकान्त का निवारण करते हैं। ये एकानेक स्वभाव वाले होकर कार्य के संपादनं में समर्थ होते हैं और प्रमाण के विषय होने से परमार्थ सत् होते हैं। इसलिए उनके प्रतिपादक शास्त्र की भी सम्यक्ता है और इनका समन्वित वाद सम्यक् वाद है।
उपर्युक्त समन्वय करने से पूर्व अभयदेवसूरि ने विशद रूप से कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद और पुरुषवाद की ऐकान्तिकता का खण्डन किया है।
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