Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५८१
आचार्य महाप्रज्ञ
तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य महाप्रज्ञ ने आत्मकर्तृत्ववाद के संदर्भ में कारणपंचक सापेक्षता स्वीकार की है। उनके कथनों को यहाँ उद्धृत किया गया है। ३ वे कहते हैं- “काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ ये सब नय है, इनकी सापेक्षता के द्वारा ही आत्मकर्तृत्ववाद की व्याख्या की जा सकती है। काल आदि पाँचों कारण समन्वित होकर ही किसी तथ्य की सही व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। "
मनुष्य की कार्य करने की स्वतंत्रता को भी आचार्य महाप्रज्ञ ने सापेक्ष स्वीकार किया है। वे कहते हैं- “जिसमें काल, स्वभाव, नियति या भाग्य का योग अधिक होता है, उसमें मनुष्य विचार में स्वतंत्र होते हुए भी कार्य करने में परतन्त्र होता है। जिसमें पुरुषार्थ का योग अधिक होता है उसमें मनुष्य कालादि योगों से परतन्त्र होते हुए भी कार्य करने में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार मनुष्य की कार्य करने की स्वतंत्रता सापेक्ष ही होती है। निरपेक्ष, निरन्तर और निर्बाध नहीं होती।
सापेक्षवाद की दृष्टि से किसी भी तत्त्व को प्राथमिकता या मुख्यता नहीं दी जा सकती। अपने-अपने स्थान पर सब प्राथमिक और मुख्य हैं। काल का कार्य स्वभाव नहीं कर सकता और स्वभाव का कार्य काल नहीं कर सकता। भाग्य का कार्य पुरुषार्थ नहीं कर सकता और पुरुषार्थ का कार्य भाग्य नहीं कर सकता। फिर भी कर्तृत्व के क्षेत्र में पुरुषार्थ अग्रणी है । "
“पुरुषार्थ से काल के योग को पृथक् नहीं किया जा सकता, किन्तु काल की अवधि में परिवर्तन किया जा सकता है। पुरुषार्थ से भाग्य के योग को पृथक् नहीं किया जा सकता, किन्तु भाग्य में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।” “काल, स्वभाव आदि को ज्ञान का वरदहस्त प्राप्त नहीं है, इसलिए वे पुरुषार्थ को कम प्रभावित करते हैं । पुरुषार्थ को ज्ञान का वरदहस्त प्राप्त है, इसलिए वह काल, स्वभाव आदि को अधिक प्रभावित करता है।"
"महावीर ने कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर भाग्यवाद का भाग्य पुरुषार्थ के अधीन कर दिया। कर्म के उदीरणा का सिद्धान्त है कि कर्म की अवधि को घटाया बढ़ाया जा सकता है और उसकी फल देने की शक्ति को मंद और तीव्र किया जा सकता है। कर्म के संक्रमण का सिद्धान्त है कि असत् प्रयत्न की उत्कटता के द्वारा पुण्य को पाप में बदला जा सकता है और सत् प्रयत्न की तीव्रता के द्वारा पाप को पुण्य में बदला जा सकता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा फल भोगता है- कर्मवाद के इस एकाधिकार को यदि उदीरणा और संक्रमण का सिद्धान्त
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