Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५०० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
उत्थान- आत्म-पौरुष की उद्यतता एवं तत्परता। कर्म- आत्म-पौरुष के साथ की जाने वाली क्रिया। बल- क्रिया में आत्म-शक्ति का प्रयोग वीर्य- आत्मशक्ति का प्रेरक रूप जो सामर्थ्य का अनुभव करता है। पुरुषकार/पराक्रम- प्रयत्नपूर्वक आत्मपौरुष का प्रयोग
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जीव में आत्मशक्ति का अनुभव होता है, जो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि के रूप में प्रकट होता है।
जैन दर्शन आत्म-स्वातन्त्र्यवादी दर्शन है। इसमें प्रत्येक आत्मा को अपने दुःख-सुख का कर्ता अंगीकार किया गया है। जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त की अवधारणा है कि आत्मा स्वयं अपने कृत कर्मों का फल प्राप्त करता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में कहा भी गया है- अत्तकडे दुःखे नो परकडे अर्थात् दुःख आत्माकृत है, परकृत नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ६५ अर्थात् आत्मा ही अपने दुःख-सुख का कर्ता और विकर्ता है। जैनदर्शन में जीव के कर्मों का फल-प्रदाता ईश्वर को नहीं माना गया। इसमें कर्मों की ही स्वचालित व्यवस्था अंगीकार की गई है, जो यथा समय उदय में आकर जीव को फल प्रदान करते हैं। अरिहंत परमात्मा को तो जैन दर्शन स्वीकार करता है जो राग-द्वेष से पूर्णतः रहित होता है। ऐसे परमात्मा को सर्वज्ञ अवश्य स्वीकार किया गया है, किन्तु उसे न तो जगत् का स्रष्टा माना गया है और न ही जीवों के कर्म फल का नियन्ता। ..
आचारांग सूत्र में 'से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी १६६ सदृश वाक्य भी इंगित करते हैं कि जो आत्मवादी है, वह लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। जैनदर्शन में सब जीवों की आत्म को पृथक्पृथक अंगीकार किया गया है तथा उनमें स्वयं में मुक्त होने का सामर्थ्य बताया गया है। प्रत्येक संसारी आत्मा आत्मकृत पौरुष के द्वारा अष्ट कमों के बंधन से सदा-सदा के लिए मुक्त हो सकता है। यह जैन दर्शन का अद्भुत सिद्धान्त है। सुख-दुःख या कर्मों को आत्मकृत मानने के कारण जैन दर्शन में पुरुषार्थ, पराक्रम या पुरुषकार का अत्यन्त महत्त्व है।
इस दृष्टि से जैनदर्शन को पुरुषार्थवादी दर्शन भी कहा जा सकता है। पुरुष मिथ्यात्वी है या सम्यक्त्वी, देशविरत है या सर्वविरत, पापाचरण में संलग्न है या धर्माचरण में इत्यादि अवस्थाओं के आधार पर ही पुरुष या जीव की आत्मदशा का
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