Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कायवीर्य, इन्द्रियवीर्य और आध्यात्मिक वीर्य के भेद से भाव वीर्य पाँच प्रकार का है। जीव अपनी योग शक्ति द्वारा पुद्गलों को मन, वचन, काय और इन्द्रिय के रूप में परिणत करता है तो वे क्रमशः मनोवीर्य, वाग्वीर्य, कायवीर्य एवं इन्द्रियवीर्य कहलाते हैं। आध्यात्मिक वीर्य आत्मा की आन्तरिक शक्ति से उत्पन्न सात्त्विक बल है। इसे नियुक्तिकार दस प्रकार का बतलाते हैं- १. उद्यम (ज्ञानोपार्जन, तपश्चरण आदि में आन्तरिक उत्साह) २. धृति (संयम और चित्त में स्थैर्य) ३. धीरत्व (परीषहों और उपसगों के समय अविचलता) ४. शौण्डीर्य (त्याग की उत्साहपूर्वक उच्च कोटि की भावना) ५. क्षमाबल ६. गाम्भीर्य (अद्भुत साहसिक या चामत्कारिक कार्य करके भी अहंकार न आना) ७. उपयोग बल ८. योग बल ९. तपोबल १०. संयम में पराक्रम (१७ प्रकार के संयम के पालन में तथा अपने संयम को निर्दोष रखने में पराक्रम करना।) . भाव वीर्य के अन्तर्गत आने वाले सभी वीर्य तीन कोटि के होते हैं- पण्डित वीर्य, बालपण्डित वीर्य और बाल वीर्य। पण्डित वीर्य संयम में पराक्रमी साधुता सम्पन्न सर्वविदित साधुओं का होता है, बालपण्डित वीर्य व्रतधारी संयमासंयमी देशविरति श्रावक का होता है ओर बाल वीर्य असंयम परायण हिंसा आदि से अविरत या व्रत भंग करने वाले का होता है। सम्यक्त्व पराक्रम : उत्तराध्ययन का एक अध्ययन
उत्तराध्ययन सूत्र का 'सम्यक्त्व पराक्रम'२०४ अध्ययन तो इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि मानव को मोक्ष के उन्मुख होना है तो पराक्रम करना होगा। यह पराक्रम धर्म- श्रद्धा, संवेग-निर्वेद, गुरु-शुश्रूषा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, प्रतिलेखना, प्रायश्चित्त, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिपृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, श्रुत आराधना, मन की एकाग्रता, संयम, तप, प्रत्याख्यान, वैयावृत्त्य, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, इन्द्रियनिग्रह, क्रोध-विजय, मान-विजय, माया-विजय, लोभ-विजय आदि साधनाओं के रूप में करणीय है। इस अध्ययन में साधना के इन विविध पहलुओं का लाभ भी बताया गया है, जिससे कोई भी साधना में प्रवृत्त हो सकता है। तप के रूप में पुरुषार्थ
जैन दर्शन में आत्म पुरुषार्थ का सबसे सुन्दर निदर्शन तप साधना है। पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने का यह अमोघ उपाय है। प्राय: भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि कर्मों का फलभोग किये बिना उनसे मुक्ति नहीं मिलती। किन्तु जैन दर्शन
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