Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५६१ जीव की शक्ति को प्रतिबन्धित करने में पूर्वकृत कर्मों का योगदान होता है। जीव के द्वारा कृत अशुभ कर्म या पाप कर्म उसकी आत्म-चेतना को पतन की ओर ले जाते हैं तथा शुभ कर्म या पुण्य कर्म उसकी चेतना को मोक्षोन्मुखी बनने में अनुकूलता प्रदान करते हैं। पूर्वकृत कर्म जीव को अपने आधीन बना लेते हैं। जीव पूर्वकृत कों के वश में होकर अपने पुरुषार्थ को भी प्रकट करने में असहाय अनुभव करता है। तीर्थकर बनना भी पूर्वकृत कर्म का परिणाम
जैनदर्शन के अनुसार तीर्थकर बनना भी तभी संभव है जब पहले 'तीर्थकर' नामक नामकर्म की प्रकृति का उपार्जन किया गया हो। यह प्रकृति जब जिसके उदय में आती है तभी कोई जीव तीर्थकर बन पाता है। जैनदर्शन में तीर्थकर साधु, साध्वी श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना करता है। साधारण केवलज्ञानी बनने के लिए तो चार घाती कर्मों का क्षय करना होता है, किन्तु तीर्थकर बनने के लिए तीर्थकर प्रकृति का उपार्जन आवश्यक होता है। तीर्थकर केवलज्ञानी एवं केवलदर्शनी होता है। कर्म की कारणता का विशद प्रतिपादन
___ जैनागमों एवं कर्म-संबंधी साहित्य में अष्टविध कर्मों का विभिन्न द्वारों से विशद प्रतिपादन प्राप्त होता है। जैनदर्शन के कर्म संबंधी साहित्य एवं कर्मवाद से . सम्बद्ध मान्यताओं का निरूपण इस शोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय में विस्तार से किया गया है। कर्म-सिद्धान्त जैनधर्म का प्रमुख केन्द्रिय सिद्धान्त है। इसकी दृढ मान्यता है कि आत्मा अपने द्वारा कृत कर्मों के अनुसार सुख-दुःख प्राप्त करता है। जैनधर्म की कर्म-कारणता संबंधी मान्यता का पोषण अनेकत्र हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण या -उत्तराध्ययन २०.३७
सूत्रकृतांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि जीव अपने द्वारा कृत कमों का फल प्राप्त करता है
जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्यंति पाणिणो। सयमेव कडेहिं गाहती, नो तस्सा मुच्चे अपुट्ठयं।।
-सूत्रकृतांग सूत्र १/२/१:४
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