Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५१८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अवस्था की सर्वात्मकता है तो तृण आदि भी सर्वात्मक या सर्वगत हो जायेंगे। फिर पुरुष की एकत्व की कल्पना से क्या लाभ? पुरुष की स्वात्मा ही उसकी अवस्था है। यदि अवस्था नहीं है तो पुरुष नहीं है। यदि पुरुष की अवस्था को स्वीकार भी किया जाय तो पुरुष की चार अवस्थाओं की एकता सिद्ध होती है। उदाहरणार्थ विनिद्रा अवस्था ही जाग्रत अवस्था है। इसी प्रकार जाग्रत अवस्था ही विनिद्रा अवस्था है। ऐसा ही अन्य अवस्थाओं में समझना चाहिए। अतः भेद का अभाव होने के कारण 'पुरुष एव इदं सर्व' के अतिदेश का अभाव सिद्ध होता है।
पुरुष की अद्वैतता असिद्ध है। ७. जब पुरुष की लक्षण स्वरूप विनिद्रा अवस्था पुरुष नहीं है तथा अन्य
अवस्थाएँ भी पुरुष नहीं है तो इससे पुरुष का अभाव सिद्ध होता है। जब पुरुष का ही अभाव है तो सर्वगतता कैसे होगी? विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'पुरुषेवेदं सर्व' वेद वाक्य को अर्थवाद वाक्य बताकर उसका निरसन किया है। सन्मतितर्क टीका में अभयदेवसूरि ने जगदुत्पत्ति में पुरुष की कारणता पर आक्षेप करते हुए कहा है कि पुरुष को जगत् की स्थिति, सर्ग और प्रलय का कारण मानना उसी प्रकार असंगत है जिस प्रकार ईश्वर की जगत् हेतुता असंगत है। इसका तात्पर्य है कि अभयदेवसूरि ने कुत्रचित्
ईश्वरवाद की जगहेतुता का भी खण्डन किया है। ११. पुरुष द्वारा जगत् की उत्पत्ति में कोई उद्देश्य प्रतीत नहीं होता। यदि वह
अन्य पुरुष या ईश्वर आदि की प्रेरणा से जगत् रचना में प्रवृत्त होता है तो
उसमें अस्वतन्त्रता का प्रसंग आ जाएगा। १२. यदि वह अनुकम्पा से दूसरों का उपकार करने के लिए जगत की रचना
करता है तो दु:खी प्राणियों को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। यदि उनके कर्मों का क्षय करने के लिए दुःखी प्राणियों को उत्पन्न किया
जाय तो इसमें उन जीवों के द्वारा कृत कर्मों की अपेक्षा रखनी होगी। १४. सृष्टि के पहले अनुकम्पा योग्य प्राणियों का सद्भाव नहीं रहता। १५. क्रीड़ा से भी जगत्-रचना में पुरुष की प्रवृत्ति मानना समीचीन नहीं है।
१०.
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