Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 595
________________ ५३४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण १०२. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य १.२ भेदः १०३. "अक्षसन्निपातानन्तरोत्थाऽविकल्पकप्रत्यक्षेण हि सर्वत्रैकत्वमेवाऽन्यानपेक्षतया झगिति प्रतीयते इति तदेव वस्तुत्वस्वरूपम्। पुनरविद्यासंकेतस्मरणजनितविकल्पप्रतीत्याऽ- न्याऽपेक्षतया प्रतीयते इत्यसौ नार्थस्वरूपम्।" - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम भाग, पृष्ठ १८४ १०४. 'समारोपितादपि भेदात्तद्भेदव्यवस्थोपपत्तेः, यथा द्वैतिनां 'शिरसि मे वेदना पादे मे वेदना' इत्यात्मन समारोपितभेदनिमित्ता दुःखादिभेदव्यवस्था' - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम भाग, पृष्ठ १८९ १०५. “किं भेदस्य प्रमाणबाधितत्वादभेदः साध्यते, अभेदे साधकप्रमाणसद्भावाद्वा ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः प्रत्यक्षादेर्भेदानुकूलतया तद्बाधकत्वायोगात् । न खलु भेदमन्तरेण प्रमाणेतरव्यवस्थापि सम्भाव्यते । द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः, भेदमन्तरेण साध्यसाधकभावस्यैवासम्भवात् । न चाभेदसाधकं किंचित्प्रमाणमस्ति" - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १९० १०६. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १८४ - १८५ १०७. “यच्चानुमानादप्यात्माद्वैतसिद्धिरित्युक्तम्, तत्र स्वतः प्रतिभासमानत्वं हेतुः परतो वा। स्वतश्चेत्, असिद्धिः। परतश्चेत्, विरुद्धोऽद्वैते साध्ये द्वैतप्रसाधनात् । " - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १९५ १०८. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १८५ १०९. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १८५ ११०. 'ऊर्णनाभो हि न स्वभावतः प्रवर्तते ... प्राणिभक्षणलाम्पद्यात्प्रतिनियतहेतुसम्भूततप्रवर्तते ... प्राणिभक्षणलाम्पट्यात्प्रतिनियतहेतुसम्भूतत कादाचित्कात्' - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १९७ १११. “ न चागमप्रामाण्यवादिना अर्थवादस्य प्रामाण्यमभिप्रेतमतिप्रसंगात्। आत्मैव हि सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुरित्यप्यसम्भाव्यम्; अद्वैतैकान्ते कार्यकारणभाव-विरोधात् तस्य द्वैताविनाभावित्वात्।” - प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, प्रथम विभाग, पृष्ठ १९६ ११२. 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर: ।' - योगसूत्र १ . २४ ११३. 'एतदुपहितं चैतन्यं सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वसर्वनियन्तृत्वादिगुणकमव्यक्तमन्तर्यामी जगत्कारणमीश्वर इति ।' - वेदान्तसार, साहित्य भण्डार, मेरठ, सन् २०००, सूत्र ३८, पृष्ठ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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