Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय
५५५
२४
इन दो भागों में विभक्त है। दोनों में छः छः आरक होते हैं। १० कोटाकोटि सागरोपम वाले उत्सर्पिणी के छह आरकों का क्रम इस प्रकार है- पहला दुःखमदुःखम २१००० वर्ष का, दूसरा दुःखम भी २१००० वर्ष का, तीसरा दुःखम- सुखम ४२००० न्यून १ कोटाकोटि सागरोपम का चौथा सुखम-दुःखम २ कोटाकोटि सागरोपम का, पाँचवां सुखम ३ कोटाकोटि सागरोपम का और छठा सुखम- सुखम ४ कोटाकोटि सागरोपम का होता है। अवसर्पिणी में यह क्रम उलट जाता है। वहाँ प्रथम आरक सुखम-सुखम तथा अन्तिम आरक दुःखम दुःखम होता है। कालमान उत्सर्पिणी के अनुसार ही होता है।
(२) भरत और ऐरवत क्षेत्र में ही उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का भेद होता है। इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त और किसी भी क्षेत्र पर कालचक्र का प्रभाव नहीं पड़ता। अतएव वहाँ सदैव एक सी स्थिति रहती है । यह काल की निश्चितता नियति को ही रेखांकित कर रही है । २५
तीर्थकरों में नियति
(१) जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों की परिकल्पना है। जम्बूद्वीप में प्रत्येक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर होते हैं। उनका भी काल निश्चित माना गया है। दुःखम-सुखम नामक उत्सर्पिणी के तृतीय एवं अवसर्पिणी के चतुर्थ आरक इसके लिए निर्धारित किये गये हैं, जो निश्चित नियम स्वरूप नियति को द्योतित करते हैं। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र से इस अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर हुए हैं तथा भावी २४ तीर्थंकरों के नाम अभी से सुनिश्चित हो गए हैं।
(२) जैन कर्म सिद्धान्तानुसार तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने वाला जीव तीसरे भव में अवश्य तीर्थंकर बनता है। इसमें तीर्थंकर प्रकृति का बंध पुरुषार्थ से माना जा सकता है तथा पूर्वकृत कर्मों का फल प्राप्त करने की दृष्टि से कोई तीर्थंकर बन सकता है, किन्तु तीसरे भव में मोक्ष जाने की जो बात कही गई है वह नियति को सूचित करती है।
(३) तीर्थकरों के संबंध में यह रोचक जानकारी है कि प्रत्येक चौबीसी (२४ तीर्थंकर) में एक तीर्थंकर के निर्वाण तथा दूसरे तीर्थंकर के बीच का जो समय परिमाण या अन्तर है वह प्रत्येक चौबीसी (२४ तीर्थंकर) में उसी प्रकार रहता है। तीर्थंकरों की देह की ऊँचाई और आयुष्य भी इसी प्रकार रहते हैं। मात्र उत्सर्पिणी काल के तीर्थंकरों के आयुष्य, अन्तर, देह-परिमाण आदि का क्रम अवसर्पिणी काल के तीर्थंकरों में उलट जाता है।
२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org