Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सप्तम अध्याय जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय
उत्थापनिका
जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। उसके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है तथा उसे कथंचित् अनन्त धर्मात्मक भी स्वीकार किया गया है। वस्तु को समग्र रूप से जानना सबके लिए संभव नहीं है। इसलिए जैन दार्शनिकों ने उसे विविध दृष्टिकोणों से जानने के लिए नयवाद का सिद्धान्त दिया। नय को परिभाषित करते हुए संक्षेप में कहा गया है- 'ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः' अर्थात् ज्ञाता का अभिप्राय विशेष नय है। ज्ञाता किस दृष्टिकोण से जान रहा है, यह ही नयवाद का मूल है। नयवाद के कारण जैन दार्शनिक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जिस वस्तु को नित्य प्रतिपादित करते हैं, उसे ही वे पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य निरूपित करते हैं। अनेकान्तात्मक होने से वस्तु नित्यानित्यात्मक है और नयवाद के द्वारा उसे कथंचित् नित्य एवं कथंचित् अनित्य प्रतिपादित किया जाता है। नय का प्रयोग जानने और कथन करने दोनों में होता है। इसलिए नयों की संख्या असीमित हो सकती है। सिद्धसेन दिवाकर (५वीं शती) के शब्दों में
जावइया वयणपहा तावइया चेव होन्ति णयवाया।' ___ अर्थात् जितने वचन मार्ग होते हैं उतने नयवाद होते हैं। यद्यपि जैनाचार्यों ने वचन मार्ग के आधार पर सप्तभंगी नय का विवेचन किया है और जानने के अभिप्राय के आधार पर नैगम नय, संग्रह नय, व्यवहार नय, ऋजुसूत्र नय, शब्द नय, समभिरुढ नय और एवंभूत नय- इन सात नयों का निरूपण किया है। किन्तु नयों की संख्या नैगम आदि सात नयों तक ही सीमित नहीं की जा सकती। इन नयों के भी अनेक भेदोपभेद संभव हैं। मल्लवादी क्षमाश्रमण ने पाँचवीं शती ई. में द्वादशारनयचक्र नामक ग्रन्थ की रचना कर विधि, विधि-विधि, विध्युभय आदि १२ अरों के माध्यम से नयों का सर्वथा नृतन दृष्टिकोण के साथ निरूपण किया है, जिसमें उन्होंने उस समय प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्तों का समावेश करने का अनूठा उपक्रम किया है। सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, बौद्ध आदि दर्शनों का प्राचीन विवेचन इस ग्रन्थ की विशेषता है। 'द्वादशारनयचक्र' नामक इस ग्रन्थ के द्वितीय 'विधिविध्यर' में पुरुषवाद, नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद एवं भाववाद की चर्चा है। तृतीय अर 'विध्युभय' में
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