Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पुरुषवाद और पुरुषकार ५२१ इसमें इतरेतराश्रय दोष आता है। क्योंकि माहात्म्य विशेष के सिद्ध होने पर अदृश्य शरीर सिद्ध होगा और अदृश्य शरीर सिद्ध होने पर माहात्म्य विशेष सिद्ध होगा।
२. जगत् का निर्माण न एक ईश्वर के द्वारा संभव है और न अनेक ईश्वर के द्वारा। ईश्वर को सर्वज्ञ नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें वेद से विरोध आता है। वह जगत् की रचना में जीवों को उनके कर्मानुसार फल देने के कारण स्वतंत्र भी नहीं है।
पुरुषकार अथवा पुरुषार्थ की चर्चा इस अध्याय का महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य है क्योंकि उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने पंचसमवाय में कालादि के साथ इसी को स्थान दिया है।
पुरुषकार या पुरुषार्थ जैन साधना पद्धति की आत्मा है । पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय एवं नवीन कर्मों के निरोध के लिए आत्मपुरुषार्थ की महत्ता जैन वाङ्मय में पदे पदे प्रतिपादित है। प्रत्येक आत्मा को स्वतंत्र मानने वाला जैन दर्शन पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की अवधारणा पर टिका हुआ है। सम्यक्त्व की प्राप्ति हो या गुणश्रेणि पर आरोहण जीव के शुभ परिणामों की महत्ता सर्वत्र स्थापित है। भारतीय संस्कृति में प्रतिपादित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों में से जैन दर्शन में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की विशेष प्रतिष्ठा है। इनमें भी धर्म पुरुषार्थ पर विशेषतः ध्यान केन्द्रित किया है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति उसी से संभव है। जैन ग्रन्थों में अर्थ और काम पुरुषार्थ को मुक्ति की साधना में कोई महत्त्व नहीं दिया गया है किन्तु व्यावहारिक जीवन के लिए उनका भी आचरण धर्मपूर्वक करना उपादेय स्वीकार किया गया है।
जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। इसकी सिद्धि प्रस्तुत अध्याय में आगम एवं इतर जैन वाङ्मय के आधार पर विभिन्न बिन्दु प्रस्तुत करते हुए की गई है । पुरुषार्थ के लिए जैन ग्रन्थों में पराक्रम, वीर्य, पुरुषकार आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य आदि शब्द भी इसके पोषण में प्रयुक्त हुए हैं।
संयम में पराक्रम का उपदेश, परीषहों पर विजय प्राप्त करने का संदेश, तप के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों के क्षय करने का उल्लेख, पूर्वबद्ध कर्मों की गुणश्रेणि द्वारा असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा, साधक के द्वारा अप्रमत्तता का आराधन आदि ऐसे अनेक सबल पहलू हैं, जो जैनदर्शन को पुरुषार्थवादी दर्शन सिद्ध करता है। पुरुषकार को जैन दर्शन में जीव का लक्षण अंगीकार किया गया है- 'उद्वाणे, कम्मे
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