Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५०४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण की प्राप्ति संभव है, इस दृष्टि से जैन दर्शन के अनुसार जीव के द्वारा आचरणीय पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थ ही प्रधान पुरुषार्थ है। इसलिए इस अध्याय में पुरुषार्थ या पुरुषकार के रूप में जो भी चर्चा की जायेगी, उसमें धर्म पुरुषार्थ की चर्चा ही मुख्य रहेगी। यद्यपि अर्थ और काम भी जैन दर्शन के अनुसार उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम स्वरूप पुरुषार्थ की अपेक्षा रखते हैं। तथापि उनमें किया गया उत्थान, कर्म, बल-वीर्य भगवान महावीर का उपदेशटव्य नहीं है। इसलिए प्रसंगतः कहीं अर्थ और काम-पुरुषार्थ के रूप में पुरुषकार की यत्-किंचित् चर्चा भले ही आ जाए, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति में उनके सहयोगी न होने के कारण जैन दर्शन में धर्मपुरुषार्थ का ही विशेष महत्त्व है। क्योंकि धर्म ही मोक्ष में सहायक है। जैन साधना-पद्धति में पुरुषार्थ
जैनसाधना पद्धति में सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के साथ सम्यक् चारित्र और सम्यक तप का विशेष महत्त्व है। यहाँ सम्यक दर्शन की प्राप्ति के लिए भी पुरुषार्थ अपेक्षित है तो सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप तो धर्म पुरुषार्थ के ही प्रतीक हैं। पंच महाव्रतों का पालन, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप अष्टप्रवचन माता का आराधन तथा जीवन पर्यन्त तीन करण-तीन योग से सामायिक की साधना धर्म-पुरुषार्थ का उत्कृष्ट रूप है। साधुओं के आचार पक्ष को लें तो वह पूर्ण रूप से धर्म पुरुषार्थ को प्रतिबिम्बित करता है। जैन साधु-साध्वी वाहनों का उपयोग नहीं करते, पदयात्रा करते हैं। स्वाध्याय और ध्यान ही उनकी दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं। आहार आदि की गवेषणा वे शरीरयात्रा के लिए एवं संयम पालन में सुकरता के लिए करते हैं। आहार की गवेषणा के भी विविध नियम हैं, जिनका पालन करके निर्दोष आहार ग्रहण करना होता है। प्रत्येक क्रिया में उनका विवेक जागृत रहना आवश्यक माना जाता है। किस प्रकार बोलना, किस प्रकार वस्तुओं को उठाना और रखना तथा शौचादि के लिए किस प्रकार नियमों का पालन करना, सबका साध्वाचार में प्रतिपादन हुआ है।
जीवों में भव्यत्व रूपी योग्यता भी बिना साधना के फलित नहीं होती। यही कारण है कि भव्यत्व स्वभाव वाले जीवों को भी पुरुषार्थ के बिना न सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और न ही केवलज्ञान आदि की। संयम में पराक्रम का उपदेश उत्तराध्ययन सूत्र में चार दुर्लभ अंग चतुष्टय का वर्णन प्राप्त होता है
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं।।२८२
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