Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५०२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अर्थ-पुरुषार्थ
जीवन में अर्थ के महत्त्व के कारण ही अर्थ को पुरुषार्थ के रूप में अंगीकार किया गया है। नारद-स्मृति में कहा है
'अर्थमूला: क्रिया सर्वा यत्नस्तस्यार्जने यतः। १७५
मनुष्यों की सारी क्रियाएँ ही अर्थमूलक हैं, अतएव उसके उपार्जन में मनुष्य को महान् प्रयत्न करना चाहिए। महाभारत में कहा है
अर्थ इत्येव सर्वेषां कर्मणामव्यतिक्रमः, न ह्येतेऽर्थेन वर्तेते धर्मकामाविति श्रुतिः। अर्थस्यावयवावेतौ धर्मकामाविति श्रुतिः,
अर्थसिद्ध्या विनिर्वृत्तावुभावे तौ भविष्यतः।।१७६
अर्थ ही समस्त कर्मों की मर्यादा के पालन में सहायक है। अर्थ के बिना धर्म और काम भी सिद्ध नहीं होते। श्रति का कथन है कि धर्म और काम अर्थ के ही दो अवयव हैं। अर्थ की सिद्धि से उन दोनों की भी सिद्धि हो सकती है। काम-पुरुषार्थ
काम तृतीय महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है। काम का अर्थ है इच्छा, तृष्णा, एषणा आदि। कहा भी गया है- 'काम्यते इति कामः' अर्थात् विषय एवं पाँचों इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला शारीरिक और मानसिक सुख मुख्यतः काम कहलाता है। शरीर और मन के स्तर तक ही नहीं आत्मा के स्तर तक काम का विस्तार है। ज्ञान की इच्छा, मोक्ष की कामना, प्रेम करने की भावना ये सभी काम के अंगभूत हैं। ऋग्वेद के अनुसार काम की उत्पत्ति सृष्टि की इच्छा के रूप में हुई है।९७७
गीता के अनुसार मानव का स्वभाव सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से निर्धारित होता है। इस आधार पर काम की तीन अवस्थाएँ हैं१. शारीरिक काम- इन्द्रिय से उत्पन्न इच्छाएँ शारीरिक काम हैं। यह तमोगुण
की स्थिति है। इसे स्थूल या लौकिके काम की अवस्था भी कहा जा सकता है। यह क्षणिक सुख की अवस्था है।
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