Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३८४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं-(१) कषाय मोहनीय (२) नोकषाय मोहनीय। क्रोध, मान, माया, लोभ की वह तीव्रता जो जीव के सम्यक्त्व गुणों का घात करके अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण कराये, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाता है। जिस कषायचतुष्क के उदय से आत्मा के देशविरति चारित्र का घात होता है, उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं। जिस कषायचतुष्क के उदय से आत्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा है। वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ होता है। जिस कषायचतुष्क के उदय से आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति न हो उसे संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ कहते हैं। ये कषाय मोहनीय के १६ अवान्तर भेद हैं।
जिस कर्म के उदय से जीव में कारणवश अथवा अकारण ही हास्य, रति, अरति, शोक, भय अथवा जुगुप्सा होती है उसे हास्यादि नोकषाय मोहनीय कर्म कहा जाता है। स्त्री को पुरुष के साथ, पुरुष को स्त्री के साथ और नपुंसक को पुरुष व स्त्री के साथ संभोग की इच्छा क्रमश: स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद नोकषाय मोहनीय कर्म कहलाता है। ये नोकषाय मोहनीय के ९ भेद हैं।
५. आयुष्य कर्म- जो कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं।
___ आयुष्य कर्म के भेद- “चउबिहे पण्णत्ते। तंजहा-णेरड्याउए जाव देवाउए'८९ आयुष्य कर्म की चार उत्तर प्रकृतियाँ है- (१) देवायु (२) मनुष्यायु (३) तिथंचायु (४) नरकायु। जिसके कारण देवगति प्राप्त हो वह देवायु, जिस निमित्त से मनुष्य योनि मिले वह मनुष्यायु, जिसके फलस्वरूप तियंचगति मिले वह तिर्यंचायु तथा जिसके परिणामस्वरूप नरकगति भोगनी पड़े वह नरकायु कहलाती है।
६. नाम कर्म- चित्रकार की तरह जो आत्मा को नाना योनियों में नरकादि पर्यायों द्वारा नामांकित कराता है, वह नाम कर्म है। इस कर्म के कारण जीव नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव आदि विविध शरीर धारण करता है। नाम कर्म जीव के व्यक्तित्व का एक प्रमुख निर्धारक तत्त्व है।
नाम कर्म के भेद- "बायालीसइविहे पण्णत्ते। तंजहा गतिणामे...... अपसत्थविहाय- गतिणामे य'९० नाम कर्म की केवल मूल प्रकृतियों के अवान्तर भेदों की गणना की दृष्टि से ४२ भेद है तथा नामकर्म की मूल प्रकृतियों के अवान्तर भेदों की गणना से ६७, ९३, १०३ भेद भी बताए गए हैं। ये दो प्रकार की है- (१) पिण्ड प्रकृतियाँ (२) प्रत्येक प्रकृतियाँ।
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