Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४१२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
में एक ही गुणस्थान हो सकता है । गुणस्थान यह बतलाता है कि कर्मबंधन के क्रमश: क्षीण होने या क्रमिक आध्यात्मिक विकास होने से मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है एवं मार्गणास्थान से कर्मों के प्रतिफल के रूप में प्राप्त होने वाली विविध गति आदि की सूचना मिलती है।
आगम साहित्य में समवायांग सूत्र के अन्तर्गत जीवस्थान के रूप में १४ गुणस्थानों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु मार्गणा सिद्धान्त का सुव्यवस्थित विवरण प्राप्त नहीं होता। दिगम्बर आगम षट्खण्डागम में मार्गणा एवं गुणस्थान दोनों ही सिद्धान्तों का सुव्यवस्थित विवेचन है। प्रारम्भ में गुणस्थान एवं मार्गणास्थान की बीज रूप अवधारणाएँ उपस्थित थीं। कर्म-विषयक साहित्य के रचना काल में इनका पूर्ण विकास हुआ। साथ ही कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि से भी इनका समन्वय स्थापित किया गया।
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आत्मा और कर्म से संबंधित समस्याएँ
कर्म और आत्मा के संदर्भ में मुख्य रूप से निम्नांकित प्रश्न उपस्थित होते हैं१. कर्म पहले है या आत्मा ?
२. कर्म बलवान है या आत्मा ?
३. यदि कर्म और आत्मा का संबंध अनादि है तो उससे छुटकारा कैसे हो सकता है?
१. कर्म पहले या आत्मा ?
कर्म पहले है, उसके बाद आत्मा है; ऐसी मान्यता स्वीकार करने पर स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि कर्मों का कर्ता आत्मा जब पहले था ही नहीं तो फिर कर्मों को किया किसने? और कर्म अस्तित्व में आया कैसे? इसके विपरीत यदि आत्मा को कर्म से पहले स्वीकार करते हैं तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि कर्म पहले अस्तित्व में नहीं था तो आत्मा का बंधन कैसे हुआ? अर्थात् आत्मा किसी समय मुक्त था और फिर बंधन में आया। इन प्रश्नों पर जैन ग्रन्थों में गंभीर विचार किया गया है। उसमें न तो आत्मा को पहले माना गया है और न कर्म को, अपितु आत्मा और कर्म दोनों को ही अनादि कहा गया है। आत्मा एवं कर्म के संबंध में पंचाध्यायी में स्पष्ट उल्लेख है कि " यथानादिः स जीवात्मा यथानादिश्च पुद्गलः, द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् संबंधो जीवकर्मणा अर्थात् आत्मा भी अनादि तथा कर्म भी अनादि एवं आत्मा तथा कर्म का संबंध भी अनादि है । इस प्रकार आत्मा, और उनका पारस्परिक संबंध तीनों अनादि हैं।
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कर्म
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