Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४११ उत्तरदायी इसलिए हैं कि वह कर्म एवं कर्मसंकल्प हमारा है। दूसरों के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण है, वही हमें उत्तरदायी बनाता है। उसी के आधार पर
व्यक्ति कर्म का बंध करता है और उसका फल भोगता है।३०४ कर्म सिद्धान्त के दो महत्त्वपूर्ण तथ्य : गुणस्थान एवं मार्गणास्थान
जैन कर्मसिद्धान्त में गुणस्थान एवं मार्गणास्थान का विशेष योगदान है। क्योंकि गुणस्थानों से कर्मबंधन से छूटने तथा जीव के आध्यात्मिक विकास की सूचना मिलती है और मार्गणास्थान के विवरण से यह पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के कर्मों के करने पर जीव कौन-सी अवस्था या गति प्राप्त करता है। कर्मबंध की अल्पता और आध्यात्मिक शक्ति के विकास के आधार पर गुणस्थानों के १४ भेद किए गए हैं। ये गुणस्थान एक क्रम में व्यवस्थित हैं। इनके आधार पर समस्त जीवों के कर्मबंध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का मापन सुगमता से किया जा सकता है। गुणस्थानों के सम्यक् ज्ञान से यह भी जाना जा सकता है कि इस प्रकार की आन्तरिक अशुद्धि या शुद्धि वाला जीव अमुक कर्मप्रकृतियों का बंध, उदय तथा उदीरणा कर सकता है। १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा तथा दूसरे की अपेक्षा तीसरा; इस प्रकार पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा परवर्ती गुणस्थान में आध्यात्मिक विकास की मात्रा क्रमशः बढती जाती है और कर्म का बंधन शिथिल होता जाता है। विकास की
ओर बढती हुई इन्हीं क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहा जाता है। ये गुणस्थान निम्नलिखित हैं- १. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादन सम्यग्दृष्टि ३. सम्यगमिथ्यादृष्टि ३. अविरति सम्यग्दृष्टि ५. देशविरति ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिकरण (अपूर्वकरण), ९. अनिवृत्तिकरण बादर सम्पराय १०. सूक्ष्म संपराय ११. उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थ १२. क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ १३. सयोगकेवली १४. अयोगकेवली।०५।
मार्गणास्थान जीव के पर्व कमों की विभिन्नता के आधार पर प्राप्त होने वाली गति, योनि, शरीर, इन्द्रियों की संख्या आदि को सूचित करता है। जीव के कर्मजन्य औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक आदि भावों को दृष्टि में रखकर मार्गणाओं के १४ भेद किए गए हैं। जो इस प्रकार हैं- १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ९. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्यत्व १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञी १४ आहारकत्व।२०६ इनमें प्रत्येक के अन्य अवान्तर भेद भी हैं, जिनको लेकर ६२ मार्गणाएँ मानी गयी हैं।
कर्मजन्य औदयिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक आदि भावों के अनुसार एक ही समय में जीव में सभी चौदह मार्गणाएँ हो सकती हैं, परन्तु एक जीव में एक समय
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