Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
४२४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण भिन्नता आवश्यक है। जीवों के नानाफलों में कर्म की भिन्नता ही कारण है। नियति आदि की कारणता स्वीकार करना उचित नहीं।३४९ खण्डन
महोपाध्याय यशोविजय ने कर्म की एकान्ततः कारणता का खण्डन किया है। उनके अनुसार यदि अदृष्ट को ही सर्वत्र कारण माना जाए तो मोक्ष के अभाव की आपत्ति होगी।५० क्योंकि 'मोक्षस्य कर्माजन्यत्वात् १५१ मोक्ष कर्मजन्य नहीं होता और कर्मवाद में कर्म से भिन्न किसी को कारण नहीं माना जाता। इस प्रकार कारण का सर्वथा अभाव हो जाने से मोक्ष का होना असंभव हो जाएगा।
कोई कर्मवाद के रक्षण में यह कहे कि 'आत्मस्वरूणावस्थानरूपो मोक्षः कर्मक्षयेणाभिव्यज्यत एव, न तु जन्यत एव ५२ अर्थात् आत्मा का अपने विशुद्ध रूप में अवस्थान ही मोक्ष है, कर्मक्षय से उसकी अभिव्यक्ति मात्र होती है, उत्पत्ति नहीं होती। अत: कारणाभाव में भी उसका अस्तित्व अक्षुण्ण रह सकता है। तो यह कहना भी उचित नहीं है। मोक्षस्वरूप कर्मक्षय कारण रूप कर्म के अभाव होने पर नहीं हो सकता क्योंकि कर्मक्षय भी कर्म से होता नहीं और कर्म से भिन्न कोई कारण इस मत में मान्य नहीं है। सन्मतितर्क टीका में कर्मवाद का निरूपण एवं निरसन
कर्मवाद का स्थापन- अभयदेव सूरि (१०वीं शती) कहते हैं कि कर्मवादियों का मत है- जन्मान्तर में अर्जित इष्ट एवं अनिष्ट फल को प्रदान करने वाला कर्म समस्त जगत् के वैचित्र्य का कारण है। जैसा कि कहा है
"यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते। तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते।।"
“स्वकर्मणा युक्त एव सर्वो ह्युत्पद्यते नरः।
स तथा कृष्यते तेन, यथाऽयं स्वयमिच्छति।।३५३
अर्थात् जैसे पूर्वकृत कर्म का फल खजाने में स्थित धन की भाँति होता है, जो समय आने पर उपस्थित होता है। वैसे ही हाथ में रखे हुए दीपक के समान बुद्धि की प्रवृत्ति भी पूर्वकृत कर्मानुसार ही होती है।
अन्य श्लोक में कहा है अपने कर्म से युक्त ही सभी मनुष्य उत्पन्न होते हैं तथा वह कर्म से उसी प्रकार खींचा जाता है मानो वह स्वयं चाहता हो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org