Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४३२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१०. भोग्य पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं इसलिए उनके कारण रूप कर्म भी भिन्नभिन्न हैं। यदि कर्म को भिन्न-भिन्न नहीं मानेंगे तो भोग्य पदार्थों की भिन्नता नहीं हो सकेगी।
११. पूर्वकृत कर्म का फल खजाने में स्थित धन की भाँति होता है, जो समय आने पर उपस्थित होता है। इसी प्रकार हाथ में रखे हुए दीपक के समान बुद्धि की प्रवृत्ति भी पूर्वकृत कर्मानुसार ही होती है।
एकान्त कर्मवाद के निरसन में जैनाचार्यों ने जो तर्क दिए हैं, उनमें से कतिपय प्रमुख तर्क निष्कर्षतः इस प्रकार है
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कर्मवादी कर्म को कारण मानते हैं जबकि वह कर्ता का कार्य है। 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' लक्षण से जो कर्म का स्वरूप प्रकट होता है उससे कर्म के निर्विवाद रूप से कृतक होने के कारण वह कर्ता का ही कार्य सिद्ध होता है और वह कर्ता पुरुष या आत्मा है।
कर्म शक्ति की स्वतंत्रता का कोई स्वरूप नहीं है। उत्पन्न होने वाले अथवा क्रियमाण कर्म को पृथक्भूत पुरुष या आत्मा का आश्रय लेना होता है।
यदि पुरुषार्थ का महत्त्व नहीं है एवं कर्म से ही सबकुछ होता है तो समस्त शास्त्र की व्यर्थता का प्रसंग उपस्थित होता है। आत्मा और कर्म में परिणाम और परिणामक भाव पाया जाता है।
कर्म की प्रवृत्ति का कर्त्ता आत्मा है।
यदि अदृष्ट कर्म को सर्वत्र कारण माना जाय तो मोक्ष के अभाव की आपत्ति होगी क्योंकि मोक्ष कर्मजन्य नहीं होता है और एकान्त कर्मवाद में कर्म से भिन्न किसी कारण को नहीं माना जाता । अदृष्ट कर्म को कारण मानने से अनवस्था दोष उपस्थित होगा । घटादि कार्यों के प्रति कुलालादि कारण का होना प्रत्यक्ष से प्रतीयमान है। इसका परिहार करते हुए अन्य अदृष्ट कारणों की कल्पना करना तथा फिर उसका परिहार करने के लिए उससे भी भिन्न अदृष्ट कारण की कल्पना करना अनवस्था दोष को उत्पन्न करना है।
कर्म से जगत् की विचित्रता संभव नहीं है, क्योंकि कर्म कर्ता के अधीन है। एक स्वभाव वाले कर्म से जगत् की विचित्रता रूपी कार्य नहीं हो
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