Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पुरुषवाद और पुरुषकार
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ऋग्वेद में इस जगत्स्रष्टा पुरुष के मुख से ब्राह्मण को, दोनों भुजाओं से क्षत्रिय को, मध्य के घुटनों तक के भाग से वैश्य को और दोनों पैरों से शूद्रों को उत्पन्न प्रतिपादित किया गया है। ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि मन से चन्द्र लोक और नेत्र से सूर्य मण्डल उत्पन्न हुआ। मुख से बिजली और आग तथा प्राण से पवन उत्पन्न हुई। नाभि से लोकों के बीच का आकाश, शिर से प्रकाशयुक्त लोक और दोनों पैरों से भूमि सम्यक् वर्तमान हुई तथा कान से दिशाओं की उत्पत्ति हुई । " इस प्रकार लोकोत्पत्ति की कल्पना करते हुए इस सूक्त में कहा गया है
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'तस्माद्विराळ जायत विराजो अधि पुरुषः
अर्थात् सृष्टि के आदि में विराट् (विविध पदार्थों से युक्त ब्रह्माण्ड ) यथाविधि हुआ और विराट् से पुरुष हुआ। उस पुरुष से घोड़ा खच्चर, गधा आदि तथा दोनों और दाँतों वाले जानवर उत्पन्न हुए। उससे ही गाय, बैल, बकरी, भेड़ आदि उत्पन्न हुए। उसने पशुओं को ही नहीं ग्राम में और जंगल में निवास करने वाले पक्षियों को भी बनाया । '
पूजनीय उस पुरुष से ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए। अतः कहा है
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दो ह जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
विद्वान् लोगों ने, साधना करने वाले योगियों ने और श्रेष्ठ गुणवालों ने उस परम पुरुष को पुण्य कर्मों से सींचा तथा पूजा । १°
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ऋग्वेद के १० वें मण्डल के तृतीय अध्याय में सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि ब्रह्मणस्पति से मानी है। कहा है
ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत् । देवानां पूर्टो युगेऽसतः सदजायत ।। अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्व स्परि।
देवाँ उ प्रैत्सप्तभिः परा मार्तण्डमास्यत् ।।११
अर्थात् ब्रह्मणस्पति ने वाणी को लुहार के समान ऋषियों में भरा तथा प्रथम युग में अव्यक्त से व्यक्त रूप संसार उत्पन्न किया। इस अव्यक्त प्रकृति के आठ पुत्र
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