Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
पुरुषवाद और पुरुषकार ४७५ सुषुप्त अवस्था में आत्मा रागादि से युक्त होकर अपने आपको बंधन में डालकर पराधीन बना देता है। कर्म-बंधन से अनादि-अनन्त रूपादि स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।" यह अवस्था भी ज्ञानात्मक है, क्योंकि ज्ञाता के होने पर ही देश काल आदि से वस्तु का होना सिद्ध होता है अन्यथा घट आदि का प्रत्यक्ष होना सिद्ध नहीं होता है।
विज्ञानरूप जगत् पुरुषमय- रूपादि के भेद से पदार्थों के भेद का विधान करने पर भी वस्तुतः विज्ञान मात्र ही व्यवस्थापित होता है। इसलिए सर्वत्र आत्मा, बुद्धि, इन्द्रिय, प्रकाश, रूप, घट, औषध, आहार आदि में ज्ञानवृत्ति का ही अस्तित्व है। जैसा कि कहा है
पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।
-शुक्लयजुर्वेद ३१.२ यह सब पुरुष ही है। जो अब तक हुआ और जो होगा वह भी पुरुष ही है। अथवा अमृतत्व का स्वामी यह पुरुष अन्न के द्वारा अपना स्वरूप प्रकट करता है। टीकाकार सिंहसरि (सातवीं शती का पूर्वार्द्ध) ने इस मंत्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है
इदम्- दृश्य स्पृश्य आदि इन्द्रिय गोचर अथवा अनुमानगम्य पदार्थ सर्व- अशेष या समस्त भूतं- वर्तमान और अतीत का वाचक भाव्यं-भविष्य अमृतत्वं-अक्षयता का ईशान:- प्रभविता ज्ञान के अविनाशी होने से वह पुरुष अक्षयता का अनुभव करता है। अन्नेन- जिसे खाया जाता है, वह अन्न है। अतिरोहति- बढ़ता है।
इस प्रकार मल्लवादी क्षमाश्रमण ने द्वादशारनयचक्र में पुरुषवाद का सम्यक् एवं व्यवस्थित निरूपण किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org