Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४७६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वारा पुरुषवाद का निरसन
द्वादशारनयचक्रकार मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने पुरुषवाद का प्रमाणोपेत खण्डन किया है। उन्होंने पुरुष की अद्वैतता, सर्वगतता, सर्वज्ञता, सर्वात्मकता आदि का जो निरसन किया है, उसे यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
पुरुष की चार अवस्थाओं का निरसन- पूर्व में पुरुष की जो जाग्रत, सुप्त, सुषुप्त, तूर्य नामक चार अवस्थाएँ निरूपित की गई हैं, उसमें पुरुष तत्त्व इन चार अवस्थाओं के लक्षण वाला है अथवा ये चार अवस्थाएँ पुरुषादि के लक्षण वाली है?" यदि अवस्थाएँ स्वयं ही पुरुष है, तो चार अवस्थाओं से भिन्न किसी पुरुष की सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि समुदयी मात्र का समुदाय स्वीकार किया जाता है, रूपादि समुदाय के समान। जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि का समुदाय घटादि वस्तु होती है, उसी प्रकार चार अवस्थाओं का समुदाय ही पुरुष है। घट आदि वस्तु बौद्धमतानुसार रूपादि का समुदाय मात्र होती है। रूपादि से घट भिन्न नहीं होता है वैसे ही चार अवस्थाओं से पुरुष भिन्न नहीं होता है। चार अवस्थाओं का समुदाय ही पुरुष है, तो यह समुदायमात्रवाद रह जाएगा, पुरुषवाद नहीं। यही नहीं तूर्य (चतुर्थ) अवस्था के प्रतिपादन के लिए यदि इन चार अवस्थाओं का क्रम स्वीकार किया गया है, तो एक साथ इन अवस्थाओं के नहीं होने से अर्थात् क्रमिक होने से क्षणिकवाद की आपत्ति आती है। इसी तरह इसमें चार अवस्थाओं के चार ज्ञानों की कल्पना करने से कल्पना ज्ञान मात्र ही सत्य रह जाएगा तथा उनका आभास कराने वाली बाह्य वस्तु जैसे स्वप्न में नहीं होती है वैसे नहीं रहेगी। इस प्रकार यह विज्ञान के अतिरिक्त अर्थों का शून्यवाद उपस्थित हो जाएगा।
- शंका- आप अचिन्त्य का चिन्तन कर रहे हैं। ऊपर, नीचे और तिरछे कहीं भी एक ही तत्त्व व्यवस्थित है और वह पुरुष है। उससे भिन्न पर-अपर अणीयान् ज्यायान् आदि कुछ भी नहीं है। जैसा कि कहा है
यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किंचित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम्।।
जिससे न कोई पर है, न कोई अपर, न कोई अणीयान् है, न कोई ज्यायान्, यह तो आकाश में वृक्ष की भाँति अकेला स्थित है और उस पुरुष से ही सब पूर्ण हैं (परिव्याप्त हैं)।
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