Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
४७२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण स्वयंभूविरचित सृष्टि
सयंभुणा कडे लोए इति वुत्तं महेसिणा।
मारेण संथुया माया तेण लोए असासए।।५ अर्थात् कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि स्वयंभू अर्थात् विष्णु ने इस लोक को रचा है, यह हमारे महर्षि ने कहा है। यमराज ने माया बनाई है इसलिए यह लोक अनित्य है। विष्णु पहले एक ही थे और अकेले ही रमण करते थे। उन्होंने दूसरे की इच्छा की। उनके चिन्तन से दूसरी शक्ति उत्पन्न हुई और वह शक्ति होने के बाद ही इस जगत की सृष्टि हुई। वे कहते हैं कि उस स्वयंभू ने लोक को उत्पन्न कर अत्यन्त भार के भय से जगत् को मारने वाले यमराज को बनाया और उस यमराज ने माया बनाई। उस माया से लोग मरते हैं। वस्तुतः उपयोग रूप जीव का विनाश नहीं होता है। इसलिए 'यह मर गया' यह बात माया ही है, परमार्थतः सत्य नहीं है। इस प्रकार यह लोक अशाश्वत-अनित्य अर्थात् विनाशी है, यह प्रतीत होता है।५६ द्वादशारनयचक्र में पुरुषवाद का निरूपण
___ मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) विरचित द्वादशारनयचक्र में प्राचीन मतों का संक्षिप्त विवेचन प्राप्त होता है। पुरुषवाद के संदर्भ में भी इस ग्रन्थ में चर्चा है। इसमें पुरुष को चेतन आत्मा के रूप में प्रतिपादित करते हुए उसे समस्त सूक्ष्म और स्थूल जगत् का कारण स्वीकार किया गया है। यही नहीं बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा आदि सूक्ष्म जगत् और रूप, रस आदि स्थूल जगत् की अभिव्यक्ति पुरुष से स्वीकार की गई है। चेतन पुरुष ही सूक्ष्म-स्थूल जगत् के रूप में अभिव्यक्त होता है, इसलिए पुरुष ही सर्वात्मक है। इस ग्रन्थ में पुरुष की दूसरी विशेषता यह निरूपित की गई है कि वह ज्ञान लक्षण वाला है। जब ज्ञानस्वरूप पुरुष सर्वात्मक है तो वह सर्वज्ञ भी है। इस तरह पुरुष की सर्वज्ञता का भी द्वादशारनयचक्र में निरूपण हुआ है। पुरुष की इस ग्रन्थ में चार अवस्थाएँ बताई गई हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्य। ये सभी अवस्थाएँ न्यूनाधिक रूप में ज्ञानमय हैं। पुरुषवाद के एवंविध स्वरूप का विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ द्वादशारनयचक्र ग्रन्थ के आधार पर इन बिन्दुओं का कुछ विवेचन प्रस्तुत है
ज्ञानस्वरूप होने के कारण पुरुष ज्ञाता होता है। यह समस्त जगत् पुरुषमय है। पुरुष के एक होने से सबका (देव, मनुष्य, तिथंच, नरक, पृथ्वी, घट आदि का) ऐक्य है। सबके एक होने से जगत् और पुरुष एक ही है। वही विभिन्न रूपों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org