Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४२५ एक समान देश, काल, कुल, आकार वाले तथा समान चेष्टा(प्रयत्न) वाले को कभी अर्थ की प्राप्ति होने व कभी न होने में देश, काल, आकार आदि कारण नहीं हो सकते। दृश्यमान कारणों के समान होने के कारण ये फल प्राप्ति में भेदक नहीं हो सकते। इसलिए दृष्ट कारणों से अतिरिक्त अदृष्ट कारण है।३५४ कर्मवाद का खण्डन
यह मत असम्यक् है, इसके संबंध में तीन हेतु प्रस्तुत किए जा रहे हैं
१. अनवस्था दोष- कर्म की कारणता के पीछे अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होता है। इसलिए कहा है- "कुलालादेर्घटादिकारणत्वेनाध्याक्षतः प्रतीयमानस्य परिहारेण परादृष्टकारणप्रकल्पनया तत्परिहारेण परादृष्टकारणकल्यानया अनवस्थाप्रसंगतः क्वचिदपि कारणप्रतिनियमानुपपत्तेः १५५ अर्थात् घटादि कार्यों के प्रति कुलालादि का कारण होना प्रत्यक्ष से प्रतीयमान है, इसका परिहार करते हुए अन्य अदृष्ट कारणों की कल्पना करना तथा फिर उसका परिहार करने के लिए उससे भी भिन्न अदृष्ट कारण की कल्पना करना अनवस्था दोष का कारण है। इस प्रकार कहीं भी कार्य-कारण की व्यवस्था उत्पन्न नहीं हो सकेगी।
२. मात्र कर्म से जगत् विचित्रता असंभव- कर्म की विचित्रता को स्वतंत्र कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि वह (कर्म) कर्ता के अधीन है। एक स्वभाव वाले कर्म से जगत् की विचित्रता मानना उचित नहीं है क्योंकि कारण की भिन्नता के बिना कार्य में भिन्नता नहीं आ सकती। यदि कर्म को अनेक स्वभाव वाला स्वीकार किया जाए तो अनेक कारणों को मानने में और इस कर्म में नाममात्र का भेद रह जाता है। इसलिए वास्तव में पुरुष, काल, स्वभाव आदि की भी जगत् के वैचित्र्य में कारणता स्वीकृत है।२५६
३. अधिष्ठाता चेतन के बगैर 'कर्म' निरालम्ब- कर्म का चेतन तत्त्व आलम्बन है, उस आलम्बन के बिना कर्म अपना कार्य नहीं कर सकता क्योंकि 'चेतनवताऽनधिष्ठितमचेतनत्वाद्वास्यादिवत् वर्तते अथ तदधिष्ठायक: पुरुषोऽभ्युपगम्यते न तर्हि कमैकान्तवादः पुरुषस्य तदधिष्ठायकत्वेन जगद्वैचित्र्यकारणत्वोपपते: १५७ चेतन से अनधिष्ठित अचेतन कर्म वास्यादि (कुल्हाड़ी) की भाँति है, जिसका कोई अधिष्ठायक नहीं है। यदि उसका अधिष्ठायक पुरुष स्वीकार किया जाता है तो कर्म एकान्तवाद खण्डित हो जाता है। जगत् के वैचित्र्य में तब पुरुष को अधिष्ठायक रूप से कारण मानना होगा। कोई वस्तु केवल नित्य या केवल अनित्य होने पर कार्य को उत्पन्न नहीं करती। ऐसा अनेक बार प्रतिपादन किया है। इसलिए एकान्त कर्मवाद भी युक्तियुक्त नहीं है।
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