Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४२९ आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त। इन दोनों का संयोग अनादि है किन्तु मोक्ष प्राप्ति के समय इनका वियोग संभव है। मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा के साथ संबंध सम्भव है। जिस प्रकार घट मूर्त होते हुए भी उसका संयोग संबंध अमूर्त आकार से होता है उसी प्रकार मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संयोग संभव है। मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा के साथ संबंध होने के प्रश्न पर कुछ दार्शनिकों का समाधान है कि कर्म से युक्त आत्मा कथंचित् मूर्त है। कर्मबंधन से वियुक्त होने पर उसका अमूर्त स्वरूप प्रकट हो जाता है। कर्म का कर्ता और भोक्ता जीव है। जीव के सुख-दुःख स्वयंकृत हैं, परकृत नहीं। कर्म के फल का संविभाग दूसरा नहीं कर सकता अर्थात् एक जीव के द्वारा किये गये कर्म का फल उसे ही भोगना होता है। दूसरा उसे नहीं बाँट सकता। कर्मबंध के सामान्य हेत मिथ्यात्व, अविरति. प्रमाद, कषाय और योग के होने पर भी प्रत्येक कर्म के बंध के अपने विशिष्ट हेतु भी हैं जिनका निरूपण तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में स्पष्टत: हुआ है। शुभ कर्म पुण्य और अशुभ कर्म पाप कहे जाते हैं। दूसरे शब्दों में विशुद्धि को पुण्य और संक्लेश को पाप कहा गया है। सुख-दुःख की अनुभूति, देहान्तर-प्राप्ति चेतन की क्रिया फलवती होने से कर्मों की सिद्धि होती है। सुख एवं शुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पुण्य कर्म का तथा दुःख अशुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पाप कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। 'सुह-दुक्खाणं कारणमणुरूवं वज्जभावओऽवस्सं परमाणवो घडस्स व कारणमिह पुण्णपावाई ३६९ जैसे घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु हैं तथा पट के अनुरूप कारण तन्तु है वैसे ही सुख का अनुरूप कारण पुण्य कर्म है तथा दुःख का अनुरूप कारण कर्म है। कर्मों का फल प्रदान करने के लिए किसी ईश्वर को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा से चिपके हुए कर्म-पुद्गल उदय में आकर फल प्रदान करते हैं। जब तक जीव ने कर्मपुद्गल का ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पुद्गल शुभ या अशुभ किसी भी विशेषण से विशिष्ट नहीं
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