Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४१८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रमादकषाययोगैः पूर्वे गत्यादियोग्यानि कर्माण्याददते पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु योनिषु उत्पहान्ते कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशात्मकमवसेयमिति । अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः । अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्म का कथन करने वाले कर्मवादी हैं। कर्मवादी जगत् की विचित्रता का कारण कर्म को मानते हैं। इनके अनुसार प्राणी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से पहले गति आदि के योग्य कर्मों को ग्रहण करते हैं तथा बाद में उन भिन्न प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं। यह कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश स्वरूप जानना चाहिए । इस कर्मवाद के द्वारा कालवादी, यदृच्छावादी, नियतिवादी, ईश्वरवादी और आत्मवादी निरस्त हो जाते हैं। द्वादशारनयचक्र में कर्मवाद का उपस्थापन एवं प्रत्यवस्थान
कर्म- एकान्तवादी पुरुषकार को कारण नहीं मानते, वे पुरुषकार को नानाफलों को प्रदान करने में असमर्थ मानते हैं तथा कर्म की कारणता सिद्ध करते हैं। द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने कर्म को एकान्त कारण मानने वाले दार्शनिकों की ओर से विभिन्न तर्क उपस्थित किए हैं, वे निम्न हैं
१. पुरुषकार द्वारा कार्य की सिद्धि न होने से कर्म की सिद्धि- "यदि प्रवर्तयितृत्त्वात् पुरुषकारः कारणं स्यात् ततः प्रधानमध्यमाधमभिन्नाः सिद्धयोऽसिद्धयो वा नाना न स्युः, उत्कर्षार्थिकारणैकत्वात् '३२१ अर्थात् यदि प्रवर्तक होने से पुरुषकार ही कारण है तो प्रधान, मध्यम और अधम रूप में नाना प्रकार की सिद्धियाँ और असिद्धियाँ नहीं हो सकती क्योंकि पुरुषकारवादी तो उत्कर्ष को चाहने वाले होते हैं।
उत्कर्षार्थी के द्वारा प्रधान, मध्यम और अधम पुरुषकार संभव नहीं है। वे तो सिद्धि के ही अभिलाषी होते हैं, असिद्धि के नहीं; फिर भी नाना प्रकार की सिद्धियाँ और असिद्धियाँ देखी जाती हैं। इसलिए इनके पीछे कोई न कोई दूसरा कारण होना चाहिए, जो कर्म ही है।
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२. कार्य की भिन्नता से कर्म की सिद्धि- कार्य की भिन्नता से कारण की भिन्नता का बोध होता है और इस भिन्नता का प्रवर्तक कारण कर्म ही है। पुरुषकार में यह भेद का व्यापार संभव नहीं है, क्योंकि वह चेतना मात्र बल है। कर्म के बिना यह भेद संभव नहीं है। पशुत्व में विद्यमान जीव मनुष्य जीवन की चैतन्य शक्ति का आधान करने में समर्थ नहीं है और मनुष्य होकर वह पशु-जीवन की चैतन्य शक्ति का आधान करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि यह शक्ति तो कर्मलभ्य है।
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