Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद ४१९ ३. पुरुष अस्वतन्त्र : कर्मवश होने से- पुरुष की परवशता को स्वीकार करते हुए क्षमाश्रमण हेतु देते हैं- "योऽपि च पुरुषः सोऽस्वतंत्रः, कर्मपरवशत्वात्, वेतालाविष्टशवशरीरवत् १२४ जो भी पुरुष है वह अस्वतंत्र है, कर्म के परवश होने के कारण। वेताल से आविष्ट शव-शरीर की भाँति।
जिस प्रकार वेताल से आविष्ट शव वेताल के अधीन होता है उसी प्रकार कर्म से आविष्ट पुरुष स्वंतत्र नहीं है।
इसलिए आहार विशेष के भक्षण से जो खल, रस आदि का विभाजन होता है, उन अज्ञात क्रियाओं में पुरुष अस्वतंत्र होता है। वे क्रियाएँ कर्मकृत है, किन्तु पुरुष उसे 'मैंने की' ऐसा समझता है।३२५ यदि पुरुष स्वतंत्र हो तो वह इष्ट क्रियाएँ ही करेगा, अन्य नहीं। इसलिए सब कुछ क्रियाओं में कर्म ही कारण है।२२६
४. पुरुषकार भी कर्मरूप- पुरुषार्थवादी शंका उपस्थित करते हुए कहते हैं कि कर्म को कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि उसको सहायक कारण की अपेक्षा होती है। जैसे भार को ढोने वाले पुरुष को भार रखने और उतारने वाले सहयोगी की अपेक्षा होती है उसी प्रकार कर्म की कारणता में पुरुषकार का सहयोग होता है।३२७ कर्मवादी समाधान देते हैं कि जो पुरुषकार होता है, वह भी धर्म या अधर्म स्वरूप फल प्रदान करने के कारण कर्म ही है- "योऽपिस्वामिपुरुषकारः सोऽप्यधर्मफलत्वात् कर्मेव, क्लेशत्वात्, ज्वरवत् १२८ यदि फल की प्राप्ति अहेतुक हो तो मुक्त जीवों में भी धर्म-अधर्म या सुख-दुःख स्वरूप फल की प्राप्ति होनी चाहिए। यदि फल की प्राप्ति सहेतुक है तो उसका हेतु कर्म ही है। कर्मवाद का खण्डन
एकान्त कर्मवाद उचित नहीं है। इसके संबंध में मल्लवादी क्षमाश्रमण और आचार्य सिंहसूरि ने विभिन्न तर्क उपस्थित किए हैं, जो निम्न हैं
१. कर्म कारण नहीं कार्य- कर्मवादी कर्म को कारण मानते हैं जबकि कर्म कार्य-लक्षण वाला होता है। कर्म का जो लक्षण है उससे कर्ता का अनुमान होता है जैसा कि कहा है- 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' अर्थात् कर्ता को जो ईप्सित होता है, उसे कर्म कहते हैं। कर्म के इस लक्षण से कर्म के अतिरिक्त कर्ता का उसी प्रकार अनुमान होता है जैसे घट कार्य को देखकर उसके कर्ता कुलाल का अनुमान होता है।३२९
२. कर्मवादी द्वारा प्रदत्त हेतु असाध्य का साधक- यदि यह शंका की जाय- "ननु कर्मणैव करिष्यत इति स्वत एव कर्मणा कर्म क्रियते न
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