Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पूर्वकृत कर्मवाद
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८. अन्तराय कर्मबन्ध के कारण
"विघ्नकरणमन्तरायस्य'२२४ दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का बन्ध हेतु है। कर्मग्रन्थ के अनुसार जिन-पूजा आदि धर्म कार्यों में विघ्न उत्पन्न करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का संचय करता है।२२५ कर्म-विपाक- कर्म विपाक से अभिप्राय समय के परिपक्व होने पर कर्मों के फल प्रदान करने से है। कर्म विपाक को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।(१) नियत विपाकी कर्म (२) अनियतविपाकी कर्म।२२६ ये वे कर्म हैं जिनका फल अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है। अनियतविपाकी कर्म में कर्मों का फल किये हुए कों के अनुसार भोगना अनिवार्य नहीं होता, बल्कि उनमें व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से परिवर्तन करके इनके फलोपभोग से वंचित रह सकता है।
ज्ञानावरणीय कर्म के विपाक से जीव को ज्ञान-प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है। दर्शनावरणीय कर्म के विपाक से जीव को दर्शन की उपलब्धि नहीं होती । सातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप सुख का संवेदन तथा असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप जीव दुःख का संवेदन करता है। मोहनीय कर्म के विपाक से विवेकाभाव के कारण अशुभ की ओर प्रवृत्ति होती है। आयुष्य कर्म के फल से नरकादि चतुर्गति की आयु को भोगता है। शुभनाम कर्म के विपाक से मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, स्वर आदि प्राप्त होते हैं तथा अशुभनामकर्म से अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस प्राप्त होते हैं। गोत्र कर्म के विपाक से उच्च या नीच गोत्र मिलता है। अन्तराय कर्म के फलस्वरूप व्यक्ति के दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य आदि में बाधा उत्पन्न होती है। कर्म मोक्ष
भारतीय कर्म साहित्य में जैसे कर्मबन्ध और उसके कारणों का विस्तार से निरूपण है उसी प्रकार उन कर्मों से मुक्त होने का साधन भी प्रतिपादित किया गया है।
“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः १२२७ अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष प्राप्ति के साधन बनते हैं। इन साधनों के द्वारा अष्टविध कर्मों से आबद्ध आत्मा चार घाती कर्मों का क्षय कर कैवल्य प्राप्त करती है।२२८ शेष चार अघाती कर्मों का शरीर के साथ नाश हो जाता है तब जीव का मोक्ष होता है।२२९
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